अध्याय 7. जीवों में विविधता
जीवों में विविधता: सभी जीवधारी किसी न किसी रूप में भिन्न हैं | कोई आवास के आधार पर, कोई आकार के आधार पर, जैसे - एक अति सूक्ष्म बैक्टीरिया और दूसरी ओर 30 मीटर लंबे ह्वेल या विशाल वृक्ष, जीवन-काल के आधार पर, ऊर्जा ग्रहण करने की विधि के आधार पर जीवों में भिन्नता पाई जाती है | जीवों में इन्ही भिन्नताओं को विविधता कहते हैं |
वर्गीकरण का लाभ:
(i) जीवों का जैव विकास का अध्ययन करने में आसानी हो जाता है |
(ii) जीवों में विशेष लक्षणों को समझने में आसानी हो जाता है |
(iii) इससे जीवों को पहचानने में मदद मिलती है |
(iv) यह विभिन्न जीवों के समूहों के बीच संबंध स्थापित करने में मदद मिलती है |
(v) एक जीव के अध्ययन करने से उस समूह के सभी जीवों के बारे में पता लग जाता है |
वर्गीकरण का आधार :
(i) जीवों में उपस्थित उनकी समानताओं के आधार पर एक समूह बनाया गया है और विभिन्नताओं के आधार पर उन्हें अलग रखा गया है |
(ii) जीवों के वर्गीकरण का सबसे पहला आधारभुत लक्षण जीवों की कोशिकीय संरचना और कार्य है |
(iii) उसके बाद जैसे - एककोशिकीय एवं बहुकोशिकीय जीव, फिर कोशिका भित्ति वाले जीव और कोशिका भित्ति रहित वाले जीव फिर प्रकाश संश्लेषण करने वाले जीव या प्रकाश संश्लेषण नहीं करने वाले जीव को अलग रखा गया है |
वर्गीकरण और जैव विकास :
सभी जीवधरियों को उनकी शारीरिक संरचना और कार्य के आधर पर पहचाना जाता है और उनका वर्गीकरण किया जाता है। शारीरिक बनावट में कुछ लक्षण अन्य लक्षणों की तुलना में ज्यादा परिवर्तन लाते हैं। इसमें समय की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः जब कोई शारीरिक बनावट अस्तित्व में आती है, तो यह शरीर में बाद में होने वाले कई परिवर्तनों को प्रभावित करती है।
मूललक्षण: शरीर की बनावट के दौरान जो लक्षण पहले दिखाई पड़ते हैं, उन्हें मूल लक्षण के रूप में जाना जाता है।
जैव-विकास: अब तक जीवों में जो भी निरंतर परिवर्तन हुए है वे सभी परिवर्तन उस प्रक्रिया के कारण हुए है जो उनके बेहतर जीवन के लिए आवश्यक थे |
अर्थात जीवों के बेहतर जीवन यापन के लिए उनमें जो भी परिवर्तन होने चाहिए वही परिवर्तन हुए है जीवों में यह परिवर्तन ही जैव-विकास कहलाता है |
जैव-विकास की अवधारणा: जीवों में समय-समय पर जो उनके बेहतर जीवन-यापन के लिए जो परिवर्तन होते है जिसके कारण कोई जीवन नयी परिस्थिति में अपनी उत्तरजीविता को बनाये रखता है, यही जैव-विकास है |
जैव विकास की इस अवधारणा को सबसे पहले चाल्र्स डार्विन ने 1859 में अपनी पुस्तक ‘‘दि ओरिजिन ऑफ़ स्पीशीश’’ में दिया।
जैव-विकास के अवधारणा के आधार पर जीवों के प्रकार:
(1) आदिम जीव : कुछ जीव समूहों की शारीरिक संरचना में प्राचीन काल से लेकर आज तक कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। उन्हें आदिम जीव (Primitive) कहते है |
(2) उन्नत या उच्च जीव : कुछ जीव समूहों की शारीरिक संरचना में पर्याप्त परिवर्तन
दिखाई पड़ते हैं। उन्हें उन्नत (Advanced) जीव कहते हैं |
व्हिटेकर द्वारा प्रस्तुत जीवों के पाँच जगत निम्नलिखित है :
1. मोनेरा (Monera)
2. प्रॉटिस्टा (Protista)
3. फंजाई (Fungi)
4. प्लान्टी (Plantee)
5. एनिमेलिया (Animelia)
1. मोनेरा जगत (Monera Kingdom):
मोनेरा जगत के जीवों के लक्षण:
(i) इन जीवों में संगठित केन्द्रक और कोशिकांग नहीं होते हैं |
(ii) इनका शरीर बहुकोशिक नहीं होते हैं |
(iii) कुछ जीवों में कोशिका भित्ति पाई जाती है और कुछ जीवों में नहीं पाई जाती है |
(iv) इनकी कोशिका प्रोकैरियोटिक कोशिका होती है |
(v) ये स्वपोषी एवं बिषमपोषी दोनों हो सकते है |
उदाहरण: जीवाणु, नील-हरित शैवाल अथवा सयानोबैक्टीरिया, माइकोप्लाज्मा आदि |
2. प्रॉटिस्टा जगत (Protista Kingdom):
प्रॉटिस्टा जगत के जीवों के लक्षण:
(i) इस जगत के जीव एककोशिक, यूकैरियोटिक होते हैं |
(ii) कुछ जीवों में गमन (movement) के लिए सिलिया और फ्लैजेला नामक संरचना पाई जाती है |
(iii) ये स्वपोषी एवं विषमपोषी दोनों होते हैं |
उदाहरण: एककोशिक शैवाल, डाईएटम और प्रोटोजोआ आदि |
3. फंजाई जगत (Fungi Kingdom) :
फंजाई जगत के जीवों के लक्षण:
(i) ये विषमपोषी यूकैरियोटिक जीव होते हैं |
(ii) ये मृतजीवी होते हैं जो अपना पोषण सड़े-गले कार्बोनिक पदार्थों से करते है |
(iii) इनमें से कई जीव बहु कोशिक क्षमता वाले होते हैं |
(iv) फंजाई अथवा कवक में काइटिन नामक जटिल शर्करा की बनी हुई कोशिका भित्ति पाई जाती है।
उदाहरण : यीस्ट और मशरूम।