सुरक्षा का अर्थ : सुरक्षा का बुनियादी अर्थ है खतरे से आजादी | परन्तु केवल उन चीजों को ‘सुरक्षा’ से जुड़ी चीजों का विषय बनाया जाय जिनसे जीवन के ‘केन्द्रीय मूल्यों’ को खतरा हो।
सुरक्षा धारणा :
(1) सुरक्षा के पारंपरिक धारणा - बाहरी सुरक्षा
इस धारणा से हमारा तात्पर्य है राष्ट्रीय सुरक्षा की धरणा से होता है। सुरक्षा की पारंपरिक अवधरणा में सैन्य ख़तरे को किसी देश के लिए सबसे ज्यादा ख़तरनाक माना जाता है। इस ख़तरे का स्रोत कोई दूसरा मुल्क होता है जो सैन्य हमले की धमकी देकर संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता जैसे किसी देश के केन्द्रीय मूल्यों के लिए ख़तरा पैदा करता है।
(2) सुरक्षा के पारंपरिक धारणा - आतंरिक सुरक्षा
इस धारणा से हमारा तात्पर्य है देश के भीतर अंदरूनी खतरों से जिसमें आपसी लड़ियाँ, गृह युद्ध, सरकार के प्रति असंतुष्टि से है | यह सुरक्षा आंतरिक शांति और कानून-व्यवस्था पर निर्भर करता है | इसमें अपने ही देश के लोगों से खतरा होता है |
किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में विकल्प :
बुनियादी तौर पर किसी सरकार के पास युद्ध की स्थिति में तीन विकल्प होते हैं -
(i) आत्मसमर्पण करना
(ii) दूसरे पक्ष की बात को बिना युद्ध किए मान लेना अथवा युद्ध से होने वाले नाश को इस हद तक बढ़ाने के संकेत देना कि दूसरा पक्ष सहमकर हमला करने से बाज आये या युद्ध ठन जाय तो
अपनी रक्षा करना ताकि हमलावर देश अपने मकसद में कामयाब न हो सके और पीछे हट जाए अथवा
(iii) हमलावार को पराजित कर देना।
अपरोध : युद्ध में कोई सरकार भले ही आत्मसमर्पण कर दे लेकिन वह इसे अपने देश की नीति के रूप में कभी प्रचारित नहीं करना चाहेगी। इस कारण, सुरक्षा-नीति का संबंध् युद्ध की आशंका को रोकने में होता है जिसे ‘अपरोध्’ कहा जाता है |
रक्षा : युद्ध को सीमित रखने अथवा उसको समाप्त करने से होता है जिसे रक्षा कहा जाता है।
परम्परागत सुरक्षा निति के तत्व :
(i) शक्ति-संतुलन : कोई देश अपने ऊपर होने वाले संभावित युद्ध या किसी अन्य खतरों के प्रति सदैव संवेदनशील रहता है | वह कई तरीकों से निर्णय अथवा शक्ति-संतुलन को अपने पक्ष में करने की कोशिश करता रहता है | अपने उपर खतरे वाले देश से शक्ति संतुलन को बनाये रखने के लिए वह अपनी सैन्य शक्ति बढाता है, आर्थिक और प्रोद्योगिकी शक्ति को बढाता है और मित्र देशों से ऐसी स्थितयों से निपटने के लिए संधियाँ करता है |
(ii) गठबंधन बनाना : गठबंधन में कई देश शामिल होते हैं और सैन्य हमले को रोकने अथवा उससे रक्षा करने के लिए समवेत कदम उठाते हैं। अधिकांश गठबन्धनों को लिखित संधि से एक औपचारिक रूप मिलता है और ऐसे गठबंधन को यह बात बिलकुल स्पष्ट रहती है कि खतरा किससे है। किसी देश अथवा गठबंधन की तुलना में अपनी ताकत का असर बढ़ाने के लिए देश गठबंधन बनाते हैं।
गठबंधन का आधार :
(i) किसी देश अथवा गठबंधन की तुलना में अपनी ताकत का असर बढ़ाने के लिए देश गठबंधन बनाते हैं।
(ii) गठबंधन राष्ट्रिय हितों पर आधारित होते है और राष्ट्रिय हितों के बदल जाने पर गठबंधन भी बदल जाते है |
एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों के सामने खड़ी सुरक्षा की चुनौतियाँ:
एशिया और अफ्रीका के नव स्वतंत्र देशों के सामने खड़ी सुरक्षा की चुनौतियाँ यूरोपीय देशों के मुकाबले दो मायनों में विशिष्ट थीं।
(i) एक तो इन देशों को अपने पड़ोसी देश से सैन्य हमले की आशंका थी।
(ii) दूसरे, इन्हें अंदरूनी सैन्य-संघर्ष की भी चिंता करनी थी।
सुरक्षा की परंपरागत धारणा में युद्ध निति : सुरक्षा की परंपरागत धारणा में स्वीकार किया जाता है कि हिंसा का इस्तेमाल यथासंभव सीमित होना चाहिए। इसमें ‘न्याय-युद्ध’ की यूरोपीय परंपरा का ही यह परवर्ती विस्तार है कि आज लगभग पूरा विश्व मानता है -
(i) किसी देश को युद्ध उचित कारणों यानी आत्म-रक्षा अथवा दूसरों को जनसंहार से बचाने के लिए ही करना चाहिए।
(ii) इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी युद्ध में युद्ध-साधनों का सीमित इस्तेमाल होना चाहिए।
(iii) युद्धरत् सेना को चाहिए कि वह संघर्षविमुख शत्रु, निहत्थे व्यक्ति अथवा आत्मसपर्मण करने वाले शत्रु को न मारे।
(iv) सेना को उतने ही बल का प्रयोग करना चाहिए जितना आत्मरक्षा के लिए जरुरी हो और उसे एक सीमा तक ही हिंसा का सहारा लेना चाहिए।
(v) सुरक्षा की परंपरागत धरणा इस संभावना से इन्कार नहीं करती कि देशों के बीच एक न एक रूप में सहयोग हो। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है - निरस्त्रीकरण, अस्त्र-नियंत्रण तथा विश्वास की बहाली।
शीतयुद्ध के कारण तीसरी दुनियाँ में हुए युद्ध : दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जितने युद्ध हुए उसमें एक तिहाई युद्धों के लिए शीतयुद्ध जिम्मेदार रहा। इनमें से अधिकांश युद्ध तीसरी दुनिया में हुए।
(i) जिस तरह विदा होती औपनिवेशिक ताकतों को उपनिवेशों में खून-खराबे का भय सता रहा था उसी तरह आजादी के बाद कुछ उपनिवेशित मुल्कों को डर था कि उनके यूरोपीय औपनिवेशिक शासक कहीं उन पर हमला न बोल दें।
(ii) ऐसे में इन मुल्कों को एक साम्राज्यवादी युद्ध से अपनी रक्षा के लिए तैयारी करनी पड़ी।
(iii) तीसरी दुनियाँ के इन देशों को जोर पकड़ते शीतयुद्ध की चिंता करनी थी और दूसरे खेमे में जाने वाले अपने पड़ोसी देश अथवा दूसरे गुट के नेता (संयुक्त राज्य अमरीका अथवा सोवियत संघ) से दुश्मनी ठाननी थी या अमरीका अथवा सोवियत संघ के किसी साथी देश से वैर मोलना था।
निरस्त्रीकरण : निरस्त्रीकरण का अर्थ होता है अस्त्र-शात्रों को समाप्त करना अथवा निरस्त्राीकरण में माँग होती है कि सभी राज्य चाहे उनका आकार, ताकत और प्रभाव कुछ खास किस्म के हथियारों से बाज आयें।
निरस्त्रीकरण के अंतर्गत हुई संधियाँ : निरस्त्रीकरण के अंतर्गत जो संधियाँ हुई उनकी निम्न प्रमुख बातें थी -
(i) जैविक और रासायनिक हथियार को बनाना और रखना प्रतिबंधित कर दिया गया है।
(ii) 155 से ज्यादा देशों ने BWC संधि पर और 181 देशों ने CWC संधि हस्ताक्षर किए हैं।
(iii) इन दोनों संधियों पर दस्तख़्त करने वालों में सभी महाशक्तियाँ शामिल हैं।
निर्सत्रिकरण की संधियाँ :
(i) 1972 की जैविक हथियार संधि (बॉयोलॉजिकल वीपन्स कांवेंसन BWC)
(ii) 1992 की रासायनिक हथियार संधि (केमिकल वीपन्स कंवेंशन- CWC)
अस्त्र-नियंत्रण : अस्त्र नियंत्रण के अंतर्गत हथियारों को विकसित करने अथवा उनको हासिल करने के संबंध् में कुछ कानूनों का पालन करना पड़ता है।
1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) : सन् 1972 की एंटी बैलेस्टिक मिसाइल संधि (ABM) ने अमरीका और सोवियत संघ को बैलेस्टिक मिसाइलों को रक्षा-कवच के रूप में इस्तेमाल करने से रोका। ऐसे प्रक्षेपास्त्रों से हमले की शुरुआत की जा सकती थी। संधियों में दोनों देशों को सीमित संख्या में ऐसी रक्षा-प्रणाली तैनात करने की अनुमति थी लेकिन इस संधि ने दोनों देशों को ऐसी रक्षा-प्रणाली के व्यापक उत्पादन से रोक दिया।
परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) : परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) को 1968 में बनाया गया था | यह भी अस्त्र नियंत्रण संधि था क्योंकि इसने परमाण्विक हथियारों के उपार्जन को कायदे-कानून के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया |
परमाणु अप्रसार संधि (न्यूक्लियर नॉन प्रोलिफेरेशन ट्रीटी - NPT) की विशेषताएँ :
(i) जिन देशों ने सन् 1967 से पहले परमाणु हथियार बना लिये थे या उनका परीक्षण कर लिया था उन्हें इस संधि के अंतर्गत इन हथियारों को रखने की अनुमति दी गई।
(ii) जो देश सन् 1967 तक ऐसा नहीं कर पाये थे उन्हें ऐसे हथियारों को हासिल करने के अधिकार से वंचित किया गया।
(iii) परमाणु अप्रसार संधि ने परमाण्विक आयुधों को समाप्त तो नहीं किया लेकिन इन्हें हासिल कर सकने
वाले देशों की संख्या जरूर कम की।
विश्वास बहाली की प्रक्रिया : विश्वासी बहाली की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करती है कि प्रतिद्वन्द्वी देश किसी गलतफहमी या गफलत में पड़कर जंग के लिए आमादा न हो जाएँ।
दो प्रतिद्वंदी देशों के बीच विश्वास बहाली की प्रक्रिया : सुरक्षा की पारंपरिक धरणा में यह बात भी मानी गई है कि विश्वास बहाली के उपायों से देशों के बीच हिंसाचार कम किया जा सकता है।
(i) विश्वास बहाली की प्रक्रिया में सैन्य टकराव और प्रतिद्वन्द्विता वाले देश सूचनाओं तथा विचारों के नियमित आदान-प्रदान का फैसला करते हैं।
(ii) दो देश एक-दूसरे को अपने फौजी मकसद तथा एक हद तक अपनी सैन्य योजनाओं के बारे में बताते हैं।
(iii) ऐसा करके ये देश अपने प्रतिद्वन्द्वी को इस बात का आश्वासन देते हैं कि उनकी तरफ से औचक हमले की
योजना नहीं बनायी जा रही।
(iv) देश एक-दूसरे को यह भी बताते हैं कि उनके पास किस तरह के सैन्य-बल हैं। वे यह भी बता सकते हैं कि इन बलों को कहाँ तैनात किया जा रहा है।