समकालीन मुद्दे जो विश्व-राजनीति के दायरे में आते हैं :
(i) कृषि योग्य भूमि की कमी और जलाशयों का प्रदुषण : दुनिया भर में कृषि-योग्य भूमि में अब कोई बढ़ोत्तरी नहीं हो रही जबकि मौजूदा उपजाऊ जमीन के एक बड़े हिस्से की उर्वरता कम हो रही है। चारागाहों के चारे खत्म होने को हैं और मत्स्य-भंडार घट रहा है। जलाशयों की जलराशि बड़ी तेजी से कम हुई है उसमें प्रदूषण बढ़ा है। इससे खाद्य- उत्पादन में कमी आ रही है।
(ii) स्वच्छ जल का आभाव : संयुक्त राष्ट्रसंघ की विश्व विकास रिपोर्ट (2006) के अनुसार विकासशील देशों की एक अरब बीस करोड़ जनता को स्वच्छ जल उपलब्ध् नहीं होता और यहाँ की दो अरब साठ करोड़ आबादी साफ-सफाई की सुविध से वंचित हैं। इस वजह से 30 लाख से ज्यादा बच्चे हर साल मौत के शिकार होते हैं।
(iii) वनों की कटाई और जैव-विविधता की हानि : प्राकृतिक वन जलवायु को संतुलित रखने में मदद करते हैं, इनसे जलचक्र भी संतुलित बना रहता है और इन्हीं वनों में धरती की जैव-विविधता का भंडार भरा रहता है लेकिन ऐसे वनों की कटाई हो रही है और लोग विस्थापित हो रहे हैं। जैव-विविधता की हानि जारी है |
(iv) वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में लगातार कमी : धरती के ऊपरी वायुमंडल में ओजोन गैस की मात्रा में लगातार कमी हो रही है। इसे ओजोन परत में छेद होना भी कहते हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र और मनुष्य के स्वास्थ्य पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है।
(v) समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण : पूरे विश्व में समुद्रतटीय क्षेत्रों का प्रदूषण भी बढ़ रहा है। पूरी दुनिया में समुद्रतटीय इलाकों में मनुष्यों की सघन बसाहट जारी है और इस प्रवृति पर अंकुश न लगा तो समुद्री पर्यावरण की गुणवत्ता में भारी गिरावट आएगी।
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के मसले राजनीतिक है | कैसे ?
पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के मसले एक और गहरे अर्थ में राजनीतिक हैं। ऐसा इसलिए कि पर्यावरण को नुकसान हम पहुँचाते है | इस पर रोक लगाने के उपाय करने की जिम्मेदारी भी हमारी अर्थात विभिन्न देशों की सरकारों की है |धरती के प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का हक़ भी इन्ही सरकारों का है | इनसे जुडी समस्याओं पर अंकुश लगाने के लिए विभिन्न देशों की सरकारें कदम उठाती है | अत: यह पूरा मुद्दा ही राजनितिक है |
पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) : 1992 में संयुक्त राष्ट्रसंघ का पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर केन्द्रित एक सम्मेलन ब्राजील के रियो डी जनेरियो में हुआ। इसे पृथ्वी सम्मेलन (Earth Summit) कहा जाता है। इस सम्मेलन में 170 देश, हजारों स्वयंसेवी संगठन तथा अनेक बहुराष्ट्रीय निगमों ने भाग लिया।
पृथ्वी सम्मेलन की विशेषताएँ/महत्व :
(i) पर्यावरण को लेकर बढ़ते सरोकार को इसी सम्मेलन में राजनितिक दायरे में ठोस रूप मिला |
(ii) रियो-सम्मेलन में यह बात खुलकर सामने आयी कि विश्व के धनी और विकसित देश अर्थात उत्तरी गोलार्द्ध तथा गरीब और विकासशील देश यानि दक्षिणी गोलार्द्ध पर्यावरण के अलग-अलग एजेंडे के पैरोकार है |
(iii) उत्तरी देशों की मुख्य चिंता ओजोन परत की छेड़ और ग्लोबल वार्मिंग को लेकर थी जबकि दक्षिणी देश आर्थिक विकास और पर्यावरण प्रबंधन के आपसी रिश्ते को सुलझाने के लिए ज्यादा चिंतित थे |
(iv) रियो-सम्मेलन में जलवायु-परिवर्तन. जैव-विविधता और वानिकी के संबंध में कुछ निय्माचार निर्धारित हुए | इसमें एजेंडा-21 के रूप में विकास के कुछ तौर-तरीके भी सुझाए गए |
(v) इसी सम्मेलन में 'टिकाऊ विकास' का तरीका सुझाया गया जिसमें ऐसी विकास की कल्पना की गयी जिसमें विकास के साथ-साथ पर्यावरण को भी नुकसान न पहुंचे | इसे धारणीय विकास भी कहा जाता है !
वैश्विक संपदा या मानवता की सांझी विरासत :
विश्व के कुछ हिस्से और क्षेत्र किसी एक देश के संप्रभु क्षेत्राधिकार से बाहर होते हैं। इसीलिए उनका प्रबंधन साझे तौर पर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय द्वारा किया जाता है। इन्हें ‘वैश्विक संपदा’ या 'मानवता की सांझी विरासत' कहा जाता है | उदाहरण : पृथ्वी का वायुमंडल, अंटार्टिका, समुद्री सतह और बाहरी अंतरिक्ष आदि शामिल है |
वैश्विक संपदा की सुरक्षा के लिए किये गए समझौते :
(i) अन्टार्कटिका संधि (1959)
(ii) मांट्रियल न्यायाचार (प्रोटोकॉल 1987) और
(iii) अन्टार्कटिका पर्यावरणीय न्यायाचार (1991)
पर्यावरण को लेकर विकसित और विकासशील देशों का रवैया :
विकसित देश : उत्तर के विकसित देश पर्यावरण के मसले पर उसी रूप में चर्चा करना चाहते हैं जिस दशा में पर्यावरण आज मौजूद है। ये देश चाहते हैं कि पर्यावरण के संरक्षण में हर देश की जिम्मेदारी बराबर हो।
विकासशील देश : विकासशील देशों का तर्क है कि विश्व में पारिस्थितिकी को नुकसान अधिकांशतया विकसित देशों के औद्योगिक विकास से पहुँचा है। यदि विकसित देशों ने पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुँचाया है तो उन्हें इस नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी भी ज्यादा उठानी चाहिए। इसके अलावा, विकासशील देश अभी औद्योगीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं और जरुरी है कि उन पर वे प्रतिबंध् न लगें जो विकसित देशों पर लगाये जाने हैं।
रियो-घोषणा पत्र : यह घोषणा पत्र कहता है - "धरती के पारिस्थितिकी तंत्र की अखंडता और गुणवत्ता की बहाली, सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए विभिन्न देश विश्व-बंधुत्व की भावना से आपस में सहयोग करेंगे। पर्यावरण के विश्वव्यापी अपक्षय में विभिन्न राज्यों का योगदान अलग-अलग है। इसे देखते हुए विभिन्न राज्यों की साझी किंतु अलग-अलग जिम्मेवारी होगी। विकसित देशों के समाजों का वैश्विक पर्यावरण पर दबाव ज्यादा है और इन देशों के पास विपुल प्रौद्योगिक एवं वित्तीय संसाधन हैं। इसे देखते हुए टिकाऊ विकास के अंतर्राष्ट्रीय प्रयास में विकसित देश अपनी ख़ास जिम्मेदारी स्वीकार करते हैं।’’
जलवायु के परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्रसंघ के नियमाचार यानी यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC-1992) :
(i) इस संधि को स्वीकार करने वाले देश अपनी क्षमता के अनुरूप, पर्यावरण के अपक्षय में अपनी हिस्सेदारी के आधर पर साझी परंतु अलग-अलग जिम्मेदारी निभाते हुए पर्यावरण की सुरक्षा के प्रयास करेंगे।
(ii) इस नियमाचार को स्वीकार करने वाले देश इस बात पर सहमत थे कि ऐतिहासिक रूप से भी और मौजूदा समय में भी ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में सबसे ज्यादा हिस्सा विकसित देशों का है।
(iii) यह बात भी मानी गई कि विकासशील देशों का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अपेक्षाकृत कम है। इस कारण चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों को क्योटो-प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से अलग रखा गया है।
(iv) क्योटो प्रोटोकॉल एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अंतर्गत औद्योगिक देशों के लिए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
(v) कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन जैसी कुछ गैसों के बारे में माना जाता है कि वैश्विक तापवृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में इनकी कोई-न-कोई भूमिका जरुर है |
(vi) ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना में विश्व का तापमान बढ़ता है और धरती के जीवन के लिए यह बात बड़ी प्रलयंकारी साबित होगी। जापान के क्योटो में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमति बनी।
साझी संपदा : साझी संपदा का अर्थ होता है ऐसी संपदा जिस पर किसी समूह के प्रत्येक सदस्य का
स्वामित्व हो।
विशेषताएँ :
(i) संसाधन की प्रकृति, उपयोग के स्तर और रख-रखाव के संदर्भ में समूह के हर सदस्य को
समान अधिकार प्राप्त होता है |
(ii) समान उत्तरदायित्व निभाने होते है |
साझी संपदा के आकार घटने के कारण :
(i) निजीकरण
(ii) गहनतर खेती
(iii) आबादी की वृद्धि
(iv) पारिस्थितिक तंत्र की गिरावट
साझी संपदा में गिरावट :
(i) इस संपदा का आकार घट रहा है |
(ii) इसकी गुणवता में कमी आई है |
(iii) गरीबों के बीच इसकी उपलब्धता कम हुई है !
क्योटो प्रोटोकॉल : पर्यावरण समस्याओं को लेकर विश्व जनमानस के बीच जापान के क्योटो शहर में 1997 में इस प्रोटोकॉल पर सहमती बनी 1992 में इस समझौते के लिए कुछ सिद्धांत तय किए गए थे और सिद्धांत की इस रूपरेखा यानी यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज पर सहमति जताते हुए हस्ताक्षर हुए थे। इसे ही क्योटो प्रोटोकॉल कहा जाता है |
- भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997) पर हस्ताक्षर किये और इसका अनुमोदन किया |
- भारत, चीन और अन्य विकासशील देशों को क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यताओं से छूट दी
गई है क्योंकि औद्योगीकरण के दौर में ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्शन के मामले में इनका कुछ खास योगदान नहीं था। - औद्योगीकरण के दौर को मौजूदा वैश्विक तापवृद्धि और जलवायु-परिवर्तन का जिम्मेदार माना जाता है।
ग्रुप-8 में भारत का पक्ष :
2005 के जून में ग्रुप-8 के देशों की बैठक हुई। इसमें भारत ने ध्यान दिलाया कि विकासशील देशों में ग्रीन हाऊस गैसों की प्रति व्यक्ति उत्सर्जन दर विकसित देशों की तुलना में नाममात्र है। साझी परंतु
अलग-अलग जिम्मेदारी के सिद्धांत के अनुरूप भारत का विचार है कि उत्सर्जन-दर में कमी करने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी विकसित देशों की है क्योंकि इन देशों ने एक लंबी अवधि तक बहुत ज्यादा उत्सर्जन किया है।
जलवायु परिवर्तन से संबंधित भारत का तर्क :
संयुक्त राष्ट्रसंघ के जलवायु-परिवर्तन से संबंधित बुनियादी नियमाचार (UNFCCC) के अनुरूप भारत पर्यावरण से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय मसलों में ज्यादातर ऐतिहासिक उत्तरदायित्व का तर्क रखता है। इस तर्क के अनुसार -
(i) ग्रीनहाऊस गैसों के रिसाव की ऐतिहासिक और मौजूदा जवाबदेही ज्यादातर विकसित देशों की है।
(ii) इसमें जोर देकर कहा गया है कि ‘विकासशील देशों की पहली और अपरिहार्य प्राथमिकता आर्थिक तथा सामाजिक विकास की है।’
जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण के लेकर भारत का प्रयास : भारत की सरकार विभिन्न कार्यक्रमों के
जरिए पर्यावरण से संबंधित वैश्विक प्रयासों में शिरकत कर रही है। मिसाल के लिए
(i) भारत ने अपनी नेशनल ऑटो-फ्रयूल पॉलिसी’ के अंतर्गत वाहनों के लिए स्वच्छतर ईंधन अनिवार्य कर दिया है।
(ii) 2001 में ऊर्जा-संरक्षण अधिनियम पारित हुआ। इसमें ऊर्जा के ज्यादा कारगर इस्तेमाल की पहलकदमी की गई है।
(iii) ठीक इसी तरह 2003 के बिजली अधिनियम में पुनर्नवा (Renewable) ऊर्जा के इस्तेमाल
को बढ़ावा दिया गया है।
(iv) हाल में प्राकृतिक गैस के आयात और स्वच्छ कोयले के उपयोग पर आधरित प्रौद्योगिकी को अपनाने की तरफ रुझान बढ़ा है। इससे पता चलता है कि भारत पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से ठोस कदम उठा रहा है।
(v) भारत बायोडीजल से संबंधित एक राष्ट्रीय मिशन चलाने के लिए भी तत्पर है। इसके अंतर्गत 2011-12 तक बायोडीजल तैयार होने लगेगा और इसमें 1 करोड़ 10 लाख हेक्टेयर भूमि का इस्तेमाल होगा। पुनर्नवीकृत होने वाली ऊर्जा के सबसे बड़े कार्यक्रमों में से एक भारत में चल रहा है।
पर्यावरण आन्दोलन :
पर्यावरण आन्दोलन की महत्त्वपूर्ण पेशकदमियाँ सरकारों की तरफ से नहीं बल्कि विश्व के विभिन्न भागों में सक्रिय पर्यावरण के प्रति सचेत कार्यकर्ताओं ने की हैं। इन कार्यकर्ताओं में कुछ तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और बाकी स्थानीय स्तर पर सक्रिय हैं। आज पूरे विश्व में पर्यावरण आंदोलन
सबसे ज्यादा जीवंत विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं। आंदोलनों से नए विचार जन्म लेते हैं |
पर्यावरण आन्दोलनों कि विशेषताएँ :
(i) पर्यावरण आन्दोलनों से नए विचार जन्म लेते हैं |
(ii) मौजूदा पर्यावरण आंदोलनों की एक मुख्य विशेषता उनकी विविधता है।
(iii) यह आन्दोलन सरकारों द्वारा नहीं अपितु सक्रिय सचेत पर्यावरण कार्यकर्ताओं द्वारा चलाया जाता है |
(iv) इसके कार्यकर्ता अंतर्राष्ट्रीय और स्थानीय दोनों स्तरों पर सक्रिय हैं |
(v) पर्यावरण आंदोलन सबसे ज्यादा जीवंत विविधतापूर्ण तथा ताकतवर सामाजिक आंदोलनों में शुमार किए जाते हैं।
पर्यावरण आन्दोलनों के प्रकार :
(i) वनों कि कटाई के लेकर आन्दोलन
(ii) खनिज उद्योगों से बढ़ते दुष्प्रभाव को लेकर आन्दोलन
(iii) नदियों पर बाँध बनाये जाने को लेकर आन्दोलन
(iv) पर्यावरण बचाओं आन्दोलन