बौद्ध धर्म के विचारों और विश्वासों को जानने का स्रोत :
(i) बौद्ध ग्रंथ के अलावा इमारतों और अभिलेख
(ii) प्रभूत मात्रा में उपलब्ध भौतिक साक्ष्य
(iii) साँची का स्तूप
स्तूप : स्तूप बौद्ध धर्म से जुड़े टीले हैं | इनमें बुद्ध के शरीर के कुछ अवशेष अथवा उनके द्वारा प्रयोग की गई वस्तु को इनमें संरक्षित करके गाडा गया था |
साँची स्तूप : साँची का स्तूप मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 20 मील दूर उत्तर-पूर्व में स्थित साँची कनखेडा नामक एक गाँव में स्थित है | यह एक पहाड़ी पर बना हुआ है और यह एक गोलार्द्ध ढाँचा है |
साँची स्तूप का महत्व :
(i) साँची का स्तूप प्राचीन भारत की अद्भूत स्थापत्य कला का एक शानदार नमूना है !
(ii) बौद्ध धर्म का यह एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है |
(iii) इसकी खोज से आरंभिक बौद्ध धर्म के बारे में हमें बहुत सी जानकारियाँ देता है और हमारी समझ में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं !
साँची स्तूप की खोज : 1818 में साँची स्तूप की खोज हुई !
पवित्र स्थल : प्राचीन काल में लोग कुछ जगहों को पवित्र मानते थे | ये जगह निम्नलिखित थे |
(i) जहाँ खास किस्म की वनस्पति होती थी |
(ii) जहाँ की चट्टानें अनूठी पाई जाती थी |
(iii) जहाँ विस्मयकारी प्राकृतिक सौन्दर्य होता था |
चैत्य : कुछ पवित्र स्थलों पर एक छोटी सी वेदी बनी रहती थी जिन्हें कभी-कभी चैत्य कहा जाता था |
बौद्ध साहित्य में वर्णित चैत्यों के नाम जो महात्मा बुद्ध के जीवन से जुड़े थे :
(i) लुम्बिनी : जहाँ बुद्ध ने जन्म लिया था |
(ii) बोधगया : जहाँ बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था |
(iii) सारनाथ : जहाँ बुद्ध ने प्रथम उपदेश दिया था |
(iv) कुशीनगर : जहाँ बुद्ध ने निब्बान प्राप्त किया था |
बौद्ध धर्म का विस्तार : बुद्ध उस युग के सबसे प्रभावशाली शिक्षकों में से एक थे। सैकड़ों वर्षों के दौरान उनके संदेश पूरे उपमहाद्वीप में और उसके बाद मध्य एशिया होते हुए चीन, कोरिया और जापान, श्रीलंका से समुद्र पार कर म्याँमार, थाइलैंड और इंडोनेशिया तक फैले।
महात्मा बुद्ध और ज्ञान मार्ग : महात्मा बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था जो शाक्य कबीले के सरदार के बेटे थे | जीवन के कटु यथार्थों से दूर उन्हें महल की चार दिवारी के अन्दर सब सुखों के बीच बड़ा किया गया | एक दिन उन्होंने अपने रथकार को उन्हें शहर घुमाने के लिए मना लिया | बाहरी दुनिया की उनकी पहली यात्रा काफी पीड़ादायक रही | एक वृद्ध व्यक्ति को, एक बीमार को और एक लाश को देखकर उन्हें बड़ा गहरा सदमा पहुँचा | उसी क्षण उन्हें यह अनुभूति हुई कि मनुष्य के शरीर का क्षय और अंत निश्चित है | उन्होंने एक गृह त्यागे एक सन्यासी को भी देखा उसे मानों बुढ़ापें, बीमारी और मृत्यु से कोई परेशानी नहीं थी और उसने शांति प्राप्त कर ली थी | इस प्रकार सिद्धार्थ ने निश्चय किया कि वे भी सन्यासी का रास्ता अपनाएंगे | कुछ समय बाद वे महल त्यागकर सत्य की खोज में निकल गए |
बुद्ध ने साधना के कई मार्गों की खोज की :
(i) अतिवादी मार्ग : जिसमें शरीर को अधिक से अधिक कष्ट देना होता था | इस मार्ग के अनुपालन से वे मरते-मरते बचे थे |
(ii) मध्यमार्गी : इसमें कई दिनों तक ध्यान करना होता था | इस विधि से उन्होंने अंतत: ज्ञान प्राप्त किया |
बुद्ध के जन्म स्थल : महात्मा बुद्ध का जन्म लुम्बिनी नामक गाँव में हुआ था | यह स्थल आज बौद्ध धर्म के बहुत बड़े पवित्र स्थल के रूप में विख्यात है |
स्तूप बनाये जाने के कारण : स्तूपों का निर्माण पवित्र अवशेषों को संरक्षित करने के उद्देश्य से बनाये जाते थे |
स्तूपों का निर्माण के लिए धन :
(i) स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों को बनाने के लिए और सजाने के लिए दान लिए जाते थे ऐसा अभिलेखों से पता चलता है |
(ii) कुछ दान राजाओं द्वारा, कुछ व्यापरियों द्वारा और कुछ शिल्पकारों द्वारा लिए जाते है |
(iii) सैकड़ों महिलाओं और पुरुषों ने दान के अभिलेखों में अपना नाम बताया है। कभी-कभी वे अपने गाँव या शहर का नाम बताते हैं और कभी-कभी अपना पेशा और रिश्तेदारों के नाम भी बताते हैं।
(iv) इन इमारतों को बनाने में भिक्खुओं और भिक्खुनियों ने भी दान दिया।
स्तूप की संरचना का उदभव :
स्तूप (संस्कृत अर्थ टीला) का जन्म एक गोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ जिसे बाद में अंड कहा गया। धीरे-धीरे इसकी संरचना ज़्यादा जटिल हो गई जिसमें कई चौकोर और गोल आकारों का संतुलन बनाया गया। अंड के ऊपर एक हखमका होती थी। यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था। हखमका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर अक्सर एक छत्री लगी होती थी। टीले के चारों ओर वेदिका होती थी जो पवित्र स्थल को दुनिया से अलग करती थी |
स्तूपों की खोज :
1. अमरावती का बौद्ध स्तूप की खोज :
(i) एक स्थानीय राजा को 1796 में जो एक मंदिर बनाना चाहते थे अचानक वहां स्तूप के अवशेष मिल गए |
(ii) कुछ वर्षों के बाद कॉलिन मेकेंजी नामक एक अंग्रेज अधिकारी इस इलाके से गुजरे । हालाँकि उन्होंने कई मूर्तियाँ पाईं और उनका विस्तृत चित्रांकन भी किया, लेकिन उनकी रिपोर्टें कभी छपी नहीं।
(iii) 1854 में गुंटूर (आन्ध्र प्रदेश) के कमिश्नर ने अमरावती की यात्रा की। उन्होंने कई मूर्तियाँ और उत्कीर्ण पत्थर जमा किए और वे उन्हें मद्रास ले गए।
(iv) उन्होंने पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोज निकाला और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था।
2. साँची स्तूप की खोज : 1818 में जब साँची की खोज हुई, इसके तीन तोरणद्वार तब भी खड़े थे। चौथा वहीं पर गिरा हुआ था और टीला भी अच्छी हालत में था।
अमरावती के बौद्ध स्तूप के नष्ट होने के कारण :
(i) भारत में सर्वप्रथम अमरावती के ही स्तूप खोजे गए थे | उस समय लोगों को इन स्तूपों के बारे में अधिक जानकारी नहीं होने के कारण इन्हें संरक्षित नहीं किया जा सका |
(ii) 1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर अलग-अलग जगहों पर ले जाए जा रहे थे। कुछ पत्थर कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल पहुँचा दिए गए, तो कुछ मद्रास में इंडिया ऑफिस। कुछ पत्थर लंदन तक पहुँच गए।
(iii) कई अंग्रेज अधिकारीयों के बागों में अमरावती की मूर्तियाँ पाई गयी थी वस्तुतः इस इलाके का हर नया अधिकारी यह कहकर कुछ मूर्तियाँ उठा ले जाता था कि उसके पहले के अधिकारीयों ने भी ऐसा किया।
अमरावती के स्तूप की विशेषताएं :
(i) अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल और शानदार स्तूप था |
(ii) इसमें ऊँचे-ऊँचे उत्कीर्ण तोरणद्वार तथा सुन्दर मूर्तियाँ थी |
भारतीय कला-कृतियों के संरक्षण को लेकर पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल के विचार :
एच. एच. कोल मानते थे कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर ही रखी जानी चाहिए | उन्होंने लिखा "इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट होने देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है।"
साँची स्तूप के बचे रहने के कारण :
(i) जब साँची स्तूप की खोज हुई तबतक विद्वान और पुरातत्ववेत्ता इसके महत्व हो समझ गए थे ! चूँकि अमरावती का स्तूप भारत में सर्वप्रथम खोजा गया था जिसे संरक्षित नहीं कर पाया गया | लेकिन साँची के समय तक विद्वानों के विचार बदल गए थे |
(ii) विद्वान इस बात के महत्त्व को समझ गए थे कि किसी पुरातात्विक अवशेष को उठाकर ले जाने की बजाय खोज की जगह पर ही संरक्षित करना कितना महत्वपूर्ण है।
(iii) स्थानीय शासकों ने भी इस स्तूप को संरक्षित रखने में मदद की |
(iv) सौभाग्यवश फ्रांसिसी और अंग्रेज दोनों ही बड़ी सावधनी से बनाई प्लास्टर प्रतिकृतियों से संतुष्ट हो गए। इस प्रकार मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।
(v) भोपाल के शासकों, शाहजहाँ बेगम और उनकी उतराधिकारी सुल्तानजहाँ बेगम, ने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया।
(vi) यदि यह स्तूप समूह बना रहा है तो इसके पीछे कुछ विवेकपूर्ण निर्णयों की बड़ी भूमिका है। शायद हम इस मामले में भी भाग्यशाली रहे हैं कि इस स्तूप पर किसी रेल ठेकेदार या निर्माता की नज़र नहीं पड़ी।
ईसा पूर्व प्रथम सहस्त्रब्दी का काल विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ :
इस काल को इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। इसके निम्नलिखित कारण हैं : -
(i) इस काल में ईरान में जरथुस्त्र जैसे चिन्तक, चीन में खुंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु और भारत में महावीर, बुद्ध और कई अन्य चिंतकों का उद्भव हुआ।
(ii) उन्होंने जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास किया। साथ-साथ वे इंसानों और विश्व व्यवस्था के बीच रिश्ते को समझने की कोशिश कर रहे थे।
(iii) यही वह समय था जब गंगा घाटी में नए राज्य और शहर उभर रहे थे और सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में कई तरह के बदलाव आ रहे थे |
वैदिक परंपरा की जानकारी के स्रोत : 1500 से 1000 ईसा पूर्व में संकलित ऋग्वेद से मिलती है |
यज्ञ की परम्परा : इस उपमाहाद्विपीय भूभाग में यज्ञ की परंपरा वैदिक काल से ही रही है जिसकी जानकारी हमें ऋग्वेद से मिलता है |
(i) राजसूय और अश्वमेघ यज्ञ जैसे जटिल यज्ञ सरदार और राजा किया करते थे |
(ii) अग्नि, इंद्रा, सोम आदि कई देवताओं की स्तुति की जाती थी | यज्ञों के समय इन स्रोतों का उच्चारण किया जाता था और लोग मवेशी, बेटे, स्वास्थ्य, लंबी आयु आदि के लिए प्रार्थना करते थे।
वाद-विवाद और चर्चाए (शास्त्रार्थ) : यह वैदिक काल से चली आ रही एक ऐसी परम्परा है जिसमें वेदों के ज्ञान पर वाद-विवाद हुआ करता था जिससे सामान्य भाषा में शास्त्रार्थ कहा जाता है |
(i) शिक्षक एक जगह से दूसरी जगह घूम-घूम कर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपनी समझ को लेकर एक-दूसरे से तथा सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते थे।
(ii) ये चर्चाएँ कुटागारशालाओं (विद्वानों या ऋषियों के आश्रमों) या ऐसे उपवनों में होती थीं जहाँ घुमक्कड़ मनीषी ठहरा करते थे।
(iii) यदि एक शिक्षक अपने प्रतिद्वंद्वी को अपने तर्कों से समझा लेता था तो वह अपने अनुयायियों के साथ उसका शिष्य बन जाता था इसलिए किसी भी संप्रदाय के लिए समर्थन समय के साथ बढ़ता-घटता रहता था।
बौद्ध ग्रंथो का संकलन :
बुद्ध के किसी भी संभाषण को उनके जीवन काल में लिखा नहीं गया। उनकी मृत्यु के बाद (पाँचवीं-चौथी सदी
ई.पू.) उनके शिष्यों ने ‘ज्येष्ठों’ या ज्यादा वरिष्ठ श्रमणों की एक सभा वेसली (बिहार स्थित वैशाली का पालि भाषा में रूप) में बुलाई। वहाँ पर ही उनकी शिक्षाओं का संकलन किया गया। इन संग्रहों को त्रिपिटक कहा जाता था | अर्थात भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रंथो को रखने के लिए तीन टोकरियाँ |
ये निम्नलिखित थी और हर पिटक के अन्दर कई ग्रन्थ होते थे : -
(i) विनय पिटक : इसमें संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले लोगों के लिए नियमों का संग्रह था |
(ii) सुत्त पिटक : इसमें बुद्ध की शिक्षाओं को रखा गया |
(iii) अभिधम्म पिटक : दर्शन से जुड़े विषयों को अभिधम्म पिटक में रखा गया |
बौद्ध ग्रंथो की भाषा : ज्यादातर बौद्ध ग्रन्थ पालि भाषा में लिखी गई और बाद में संस्कृत में लिखे गए |
महायान की 'बोधिसत्त' की अवधारणा :
महायान में बोधिसत्त को एक दयावान जीव माना जो सत्कर्मों से पुण्य कमाते थे | परन्तु वे इस पुण्य का प्रयोग सन्यास लेकर निब्बान प्राप्त करने के लिए नहीं करते थे | वे इससे दुसरे की सहयता करते थे |
बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य :
(i) संसार दुखों का घर है |
(ii) इन दुखों का कारण तृष्णा अथवा लालसा है |
(iii) अपनी लालसाओं का दमन करने पर ही दु:खों से छुटकारा मिलता है और मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है |
(iv) तृष्णा के दमन के लिए मनुष्य को अष्ट मार्ग पर चलना चाहिए |
बुद्ध की शिक्षाएँ :
(i) संसार दु:खों का घर है | इन सभी दु:खों का कारण लालसाएँ है |
(ii) आत्म-संयम अपना कर लालसाओं से छुटकारा मिल सकता है |
(iii) महात्मा बुद्ध ने अहिंसा पर बल दिया | उन्होंने यज्ञों में पशु-बलि का विरोध किया |
(iv) जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति, आत्म-ज्ञान और निर्वाण के लिए व्यक्ति केन्द्रित हस्तक्षेप और सम्यक कर्म की सलाह दिया |
बुद्ध के अष्ट-मार्ग या मध्य मार्ग में शामिल बातें :
(i) शुद्ध दृष्टि (ii) शुद्ध संकल्प (iii) शुद्ध वचन (iv) शुद्ध कर्म (v) शुद्ध कमाई (vi) शुद्ध प्रयत्न (vii) शुद्ध स्मृति (viii) शुद्ध समाधि |
बुद्ध के समर्थक जिन सामाजिक वर्गों से आये थे :
(i) राजा (ii) धनवान (iii) गृहपति (vi) समान्य जन जैसे शिल्पी, कर्मकार और दास इत्यादि |
बुद्ध द्वारा संघ की स्थापना और बौद्ध भिक्खु:
बुद्ध के शिष्यों का दल तैयार हो जाने के बाद उन्होंने संघ की स्थापना की, ऐसे भिक्षुओं की एक संस्था जो धम्म के शिक्षक बन गए। ये श्रमण एक सादा जीवन बिताते थे। उनके पास जीवनयापन के लिए अत्यावश्यक चीजों के अलावा कुछ नहीं होता था। जैसे कि दिन में एक बार उपासकों से भोजन दान पाने के लिए वे एक कटोरा रखते थे। चूँकि वे दान पर निर्भर थे इसलिए उन्हें भिक्खु कहा जाता था।
संघ में पुरुषों और महिलाओं की स्थिति :
शुरू-शुरू में सिर्फ पुरुष ही संघ में सम्मिलित हो सकते थे। बाद में महिलाओं को भी अनुमति मिली। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद ने बुद्ध को समझाकर महिलाओं के संघ में आने की अनुमति प्राप्त की। बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गोतमी संघ में आने वाली पहली भिक्खुनी बनीं। कई स्त्रिायाँ जो संघ में आईं, वे धम्म की उपदेशिकाएँ बन गईं। आगे चलकर वे थेरी बनी जिसका मतलब है ऐसी महिलाएँ जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो।
बौद्ध धर्म के तेजी से फ़ैलने के कारण : बुद्ध के जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद भी बौद्ध धर्म तेजी से फैला | इसका कारण यह था कि -
(i) लोग समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असंतुष्ट थे और उस युग में तेजी से हो रहे सामाजिक बदलावों ने उन्हें
उलझनों में बाँध् रखा था।
(ii) बौद्ध शिक्षाओं में जन्म के आधर पर श्रेष्ठता की बजाय जिस तरह अच्छे आचरण और मूल्यों को महत्त्व दिया गया उससे महिलाएँ और पुरुष इस धर्म की तरफ आकर्षित हुए।
(iii) खुद से छोटे और कमजोर लोगों की तरफ मित्रता और करुणा के भाव को महत्त्व देने के आदर्श काफी लोगों को भा गए।
बौद्ध धर्म में धार्मिक परम्पराएँ :
(i) हीनयान : - महायान धार्मिक परम्परा के बाद बौद्ध धर्म में महायान के अनुयायीयों ने बौद्ध धर्म की पुरानी परम्परा को हीनयान के नाम से संबोधित किया |
(ii) महायान : - बौद्ध धर्म की नयी परम्परा जिसमें बोधिसत्त की अवधारणा उभरी | इसमें बुद्ध को एक मुक्ति दाता के रूप में देखा गया है | इस परम्परा में बुद्ध और बोधिसत्तों की मूर्तियों की पूजा इस परम्परा का एक महत्वपूर्ण अंग बन गयी |