धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र की रचना : लगभग 500 ई.पू. से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया | ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं। ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किन्तु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई.पू. से 200 ईसवी के बीच हुआ।
अचार संहिताओं का सार्वभौमिक रूप से पालन नहीं होने के कारण :
(i) वास्तविक सामाजिक संबंध् कहीं अधिक जटिल थे।
(ii) उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और
(iii) संचार की बाधओं की वजह से भी इनका का प्रभाव सार्वभौमिक कदापि नहीं था।
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं | इनमें से पहले चार 'उत्तम' माने जाते थे और बाकियों को निन्दित माना जाता था | संभवत: ये विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थी जो शास्त्रों के नियमों को अस्वीकार थे |
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह के आठ नियम :
धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं | इनमें से पहले चार 'उत्तम' माने जाते थे और बाकियों को निन्दित माना गया | सभवत: ये विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थी जो विद्वानों/ऋषियों के बनाये नियमों को स्वीकार करते थे |
गोत्र पद्धति : गोत्र पद्धति एक ऐसी पद्धति है जो 1000 ई.पू. के बाद प्रचालन में आई जिसमें आर्य लोगों को गोत्रों में वर्गीकृत किया गया | प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि (जैसे- कश्यप, सान्डिल्य, वशिष्ठ, अंगीरा, भृगु इत्यादि ) के नाम पर होता था | उस गोत्र के सदस्य उस ऋषि के वंशज माने जाते थे |
गोत्र के दो नियम :
(i) विवाह के पश्चात् स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था |
(ii) एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे |
बहुपत्नी प्रथा और एक ही गोत्र में विवाह के साक्ष्य :
कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा (अर्थात् एक से अधिक पत्नी) को मानने वाले थे। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों का विश्लेषण इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि उनके नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे प्रतीत होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति कुल के गोत्रा को ग्रहण करने की अपेक्षा, जैसा ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था, उन्होंने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा। यह भी पता चलता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्रासे थीं। यह तथ्य बहिर्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध था ।
अक्षत्रिय राजा का प्रमाण :
शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। किन्तु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। मौर्य वंश जिसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया, के उद्भव पर गर्मजोशी से बहस होती रही है। बाद के बौद्ध ग्रंथों में यह इंगित किया गया है कि वे क्ष त्रिय थे किन्तु कुछ शास्त्र उन्हें 'निम्न’ कुल का मानते हैं। शुंग और कण्व जो मौर्यों के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे, राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था। एक और उदाहरण है शक शासक राजा रूद्र दमन का जिन्हें मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय माना जाता था | दूसरा उदाहरण है सातवाहन शासक का जो स्वयं को ब्राह्मण वर्ण बताते थे जबकि शास्त्रों के अनुसार राजा का क्षत्रिय होना चाहिए था |
शास्त्रों के अनुसार जाति एवं वर्ण : कुछ इतिहासकार जाति को जन्म के आधार पर बना मानते है जबकि जाति का बहुत से ग्रन्थ या शास्त्रों में वर्णन कर्म के आधार पर बताया गया है | मनुष्य के कर्म के आधार पर ही जाति व्यवस्था बनाया गया है | जन्म से कोई जाति नहीं होती है |
वर्ण : शास्त्रों के अनुसार चार वर्ण है |
(i) ब्राह्मण (ii) क्षत्रिय (iii) वैश्य (iv) शुद्र
जातियाँ : इन चार वर्णों के आधीन अनेक जातियाँ थी जो उनके कर्मों के आधार पर था जैसे - जंगल में रहने वाले शिकारी वर्ग निषाद या फिर व्यवसायी वर्ग सुवर्णकार आदि |
मनुस्मृति के अनुसार चांडालों का कार्य (कर्तव्य):
उन्हें गाँव के बाहर रहना होता था। वे फेंके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गाँव और नगरों में चल-फिर नहीं सकते थे। संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधिक के रूप में भी कार्य करना होता था।