जंगलवासियों के जीवन में आए बदलाव का कारण :
(i) सामजिक कारणों से जंगलवासियों के जीवन में बदलाव आए | कबीलों के भी सरदार होते थे, बहुत कुछ ग्रामीण समुदाय के बड़े आदमियों की तरह उनकी जीवनशैली थी |
(ii) कई कबीलों के सरदार जमींदार बन गए कुछ तो राजा भी हो गए तो ऐसे में उन्हें अपनी सेना खाड़ी करने की जरुरत हुई | उन्होंने अपनी ही खानदान के लोगों को सेना में भर्ती किया या उनसे सैन्य सेवा की माँग की |
(iii) सिंध इलाके की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 7000 पैदल सैनिक थे | असम के अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे | पायक वे लोह होते थे जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी |
(iv) कबीलाई व्यवस्था से राजतान्त्रिक प्रणाली की तरफ संक्रमण बहुत पहले ही शुरू हो चूका था, लेकिन ऐसा लगता है की सोलहवीं सदी में आकर ही यह प्रक्रिया पूरी तरह विकसित हुई |
जमींदार : गाँव में रहने वाला एक ऐसा तबका था जो कृषि उत्पादों में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे | ये अपनी जमीन के मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त थी |
जमीदारों की इस हैसियत का कारण :
(i) उनकी जाति
(ii) वे राज्यों को कुछ खास किस्म की सेवाएं देते थे |
जमींदारों की समृद्धि की वजह :
(i) उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन जिसे मिल्कियत कहा जाता था |
(ii) वे अकसर राज्य की ओर से कर वसूलते थे | इसके बदले में उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था |
(iii) सैनिक संसाधन उनकी ताकत का एक और जरिया था | ज्यादातर जमीदारों के पास अपने किले थे और सैनिक टुकड़ियाँ होती थी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे |
ग्रामीण समाज में जमींदारी :
(i) उस काल में जमींदारी कई तरीके से किया जा सकता था जैसे नयी जमीनों को बसाकर, अधिकारों के हस्तांतरण के जरिए, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर क्योंकि इस ज़माने में जमीदारी धड़ल्ले से खरीदी और बेचीं जाती थी |
(ii) इन प्रक्रियाओं के जरिए कोई भी निचली जाति का व्यक्ति जमींदार का दर्जा हासिल कर सकता था |
(iii) उत्तर भारत में जमीन की बड़ी-बड़ी पत्तियों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर परिवार या वंश पर आधारित जमींदारियों को पुख्ता होने का मौका दिया |
(iv) जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगुआई की और खेतिहरों को खेती के साजों सामान व उधार देकर उन्हें बसने में भी मदद की |
(v) गाँव में खरीद फरोख्त से मौद्रिकरण की प्रक्रिया में तेजी आई | ये बाज़ार हाट भी स्थापित करते थे जहाँ किसान अपनी उपज को बेचने आते थे |
मुग़लकाल में भू-राजस्व प्रणाली : भू-राजस्व मुग़ल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद थी | इसलिए कृषि उत्पाद पर नियंत्रण रखने के लिए और तेजी से फैलते साम्राज्य के तमाम इलाकों से राजस्व आकलन और वसूली के यह जरुरी था कि राज्य एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा करें | इस तंत्र में दीवान, राजस्व अधिकारी के साथ-साथ हिसाब-किताब रखने वाले लोग होते थे | ये अधिकारी खेती के दुनिया में शामिल हुए और कृषि संबंधों को शक्ल देने में एक निर्णायक ताकत के रूप में उभरे |
दीवान : इसके दफ्तर पर पुरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था के देख-रेख की जिम्मेवारी थी |
मुग़लकाल में कर निर्धारण :
(i) लोगों पर कर का बोझ निर्धारित करने से पहले मुग़ल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में खास किस्म की सूचनाएँ इक्कठा करने की कोशिक होती थी |
(ii) भू-राजस्व के इंतजामात में दो चरण थे : (i) कर निर्धारण (ii) वास्तविक वसूली, जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम थी |
(iii) यह निर्धारित की गई की खेतिहर नकद भुगतान करे साथ ही साथ फसलों में भी भुगतान का विकल्प रखा गया था |
(iv) राजस्व निर्धारित करते समय राज्य अपना हिस्सा ज्यादा से ज्यादा रखने की कोशिश करता था | मगर स्थानीय हालात की वजह से कभी-कभी सचमुच में इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था |
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में एशियाई साम्राज्य :
(i) मुग़ल साम्राज्य (भारत में)
(ii) मिंग साम्राज्य (चीन में)
(iii) सफावी साम्राज्य (ईरान में)
(iv) ऑटोमन साम्राज्य (तुर्की में)
एशियाई साम्राज्यों के व्यापार संबंध :
(i) सत्रहवीं सदीं में एशियाई साम्राज्यों ने चीन से लेकर भूमध्यसागर तक जमीनी व्यापार का जिवंत जाल बिछाने में मदद की |
(ii) खोजी यात्राओं से और नयी दुनिया के खुलने से यूरोप के साथ एशिया के खास कर भारत के व्यापार में भारी विस्तार हुआ |
(iii) इसमें समुद्र पार व्यापार के साथ-साथ नयी वस्तुओं का व्यापार शुरू हुआ |
(iv) भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं का भुगतान करने के लिए एशिया में भारी मात्रा में चाँदी आया |
(v) चाँदी आने से सोलहवीं से अठारहवीं सदी में भारत में धातु मुद्रा-खास कर चाँदी के रुपयों की उपलब्धता बढ़ी |
(vi) इससे मुग़ल राज्य को कर वसूलने में नगदी उगाही बढ़ी |
आइन-ए-अकबरी एक ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का नतीजा:
आइन-ए-अकबरी अबु फज़ल की एक महत्वपूर्ण रचना है | इसकी रचना का जिम्मा बादशाह अकबर के हुक्म पर अबुल फज़ल ने उठाया | वास्तव में आइन-ए-अकबरी एक बहुत बड़े ऐतिहासिक और प्रशासनिक परियोजना का नतीजा था | अकबर के शासन के ब्यालिसवें वर्ष, 1598 ई. में पाँच संशोधनों के बाद, इसे पूरा किया गया | आइन इतिहास लिखने के एक ऐसे बड़े परियोजना का हिस्सा था जिसे अकबर ने पहल किया | इस परियोजना के परिणाम से अकबरनामा जिसे तिन जिल्दों में रचा गया | पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की तो तीसरी जिल्द, आइन-ए-अकबरी शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य लके एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया |
आइन में वर्णित विषय :
आइन कई विषयों पर विस्तार से चर्चा करती है : जैसे-
(i) राजदरबार, प्रशासन और सेना का संगठन,
(ii) राजस्व के स्रोत और अकबर साम्राज्य के प्रान्तों का भूगोल
(iii) लोगों के साहित्यिक, सांकृतिक और धार्मिक रिवाज
(iv) अकबर की सरकार के तमाम विभागों और प्रान्तों के बारे में जानकारी
(v) सूबों के बारे में पेचीदे और आँकड़ेबद्ध सूचनाएँ
आइन की सीमाएँ :
(i) `जोड़ करने पर कई गलतियाँ पाई गयी |
(ii) अंकगणित की छोटी-मोती चूक है या फिर नक़ल उतारने के दौरान अबुल फज़ल के सहयोगियों द्वारा की गई गलतियाँ |
(iii) जिन सूबों के राजकोषीय आँकड़ें बड़े तफतीस से दिए गए हैं जबकि उन्ही सूबों से कीमतों और मजदूरी जैसे महत्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज नहीं है |
(iv) ये आँकड़े आगरा और आसपास के इलाकों से लिए गए है देश के बाकि हिसों के लिए इन आंकड़ों की प्रासंगिकता सिमित है !