ग्रामीण पंचायतों की न्याय व्यवस्था :
(i) पंचायत का मुखिया लोगों के आचरण पर नजर रखता था और यह ध्यान रखा जाता था कि अलग-अलग समुदाय के लोग अपनी जाति की हदों के अन्दर ही रहे |
(ii) पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे ज्यादा गंभीर दंड देने के अधिकार थे |
(iii) समुदाय से निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सिमित समय के लिए लागु किया जाता है |
दण्डित व्यक्ति को गाँव छोड़ना पड़ता था | ऐसे नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था |
(iv) ग्राम पंचायत के अलावा हर जातियों की अपनी पंचायत होती थी | राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के दीवानी के झगड़ों का निपटारा करता था |
ग्रामीण दस्तकार :
(i) गाँव में दस्तकार काफी अच्छी तादात में रहते थे |
(ii) कभी-कभी किसानों और दस्तकारों के बीच फर्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे | मसलन-रंगरेजी, कपडे पर छपाई, मिटटी के बर्तनों को पकाना, खेती के औजार को बनाना या उसकी मरम्मत करना |
(iii) फुर्सत में ये लोग बुआई और सुहाई के बीच या सुहाई और कटाई के बीच-उस समय ये खेतिहर दस्तकारी का काम करते थे |
(iv) कुम्हार, लोहार, बढई, नाइ, यहाँ तक कि सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकार भी अपनी सेवाएँ गाँव के लोगों को देते थे जिसके बदले गाँव वाले अलग-अलग तरीकों से उन सेवाओं की अदायगी करते थे |
भारतीय गाँव एक छोटा गणराज्य :
उन्नीसवी सदी के कुछ अंग्रेज अफसरों ने भारतीय गांवों को एक ऐसे "छोटे गणराज्य" के रूप में देखा जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों और श्रम का बँटवारा करते थे | संपति व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी लिंग और जाति के नाम पर गहरी विषमतायें थी | कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फैसले लेते थे और कमजोर वर्गों का शोषण करते थे | न्याय करने का अधिकार भी उन्हें मिला हुआ था |
गाँव में मुद्रा :
सत्रहवीं सदी में फ़्रांसिसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैव्नियर को यह बात उल्लेखनीय लगी कि "भारत में वे गाँव बहुत छोटे कहे जायेंगे जिनमें मुद्रा की फेर बदल करने वाले जिन्हें सराफ कहते है, न हो | ये सराफ एक बैंकर की तरह सराफ हवाला भुगतान करते हैं और अपनी मर्जी के मुताबिक पैसे के मुकाबले रुपये कोई कीमत बढ़ा देते हैं और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की |
कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका :
(i) कृषि और घरेलु उत्पादन की प्रक्रिया में मर्द और महिलाएं एक खास भूमिका अदा करते थे | महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे-से-कन्धा मिलाकर काम करती थी |
(ii) सूत कातने, बरतन बनाने के लिए मिटटी को साफ करने और गूंधने और कपड़ों पर कढाई जैसे दस्तकारी के काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे |
(iii) किसान और दस्तकार महिलाएँ जरुरत पड़ने पर न सिर्फ खेतों में काम करती थी बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थी और बजारों में भी |
(iv) श्रम पर आधारित उस समाज में महिलाओं को बच्चा पैदा करने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था | फिर भी शादी शुदा महिलाओं की संख्या कम थी क्योंकि कुपोषण और बार-बार माँ बनने और प्रसव के वक्त मौतों की वजह से महिलाओं में मृत्यु दर अधिक थी |
भारत में जंगलों का फैलाव :
(i) समसामयिक स्रोतों से मिली जानकारी के आधार पर जंगल औसतन 40 प्रतिशत था |
(ii) उत्तर और उत्तर भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दे तो जमीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों से घिरे थे |
(iii) झारखण्ड सहित पुरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उतारी क्षेत्र दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों तक फैले हुए थे |
जंगल में रहने वाले लोग :
(i) सामन्यत: इन्हें जंगली कहब जाता था | लेकिन जंगली होने का मतलब सभ्यता का न होना बिलकुल नहीं था |
(ii) उन दिनों जंगली शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए होता था जो जंगलों में रहकर जंगल के उत्पादों पर, शिकार और स्थान्तरित खेती पर जीविका चलाते थे |
(iii) लगातार एक जगह से दुसरे जगह घुमते रहना इन जंगलों में रहने वाले कबीलों की एक खासियत थी |
(iv) राज्य जंगलों को उलट फेर वाला जगह मानता था क्योंकि यह बदमाशों को शरण देने वाला जगह था | कई बार लोग कर देने से बचने के लिए जंगलों में शरण ले लेते थे |
जंगलवासियों की जिंदगी पर वाणिज्यिक खेती का प्रभाव :
(i) जंगल के उत्पाद-जैसे शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी | लाक जैसी कुछ वस्तुएँ तो सत्रहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुएँ थी |
(ii) हाथी भी पकडे और बेचे जाते थे | व्यापर के तहत वस्तुओं की अदला बदली होती थी |