सत्रहवीं शताब्दी के हिंदुस्तान की जनता :
(i) सोलहवीं-सत्राहवीं सदी के दौरान हिंदुस्तान में करीब-करीब 85 फीसदी लोग गाँवों में रहते थे।
(ii) छोटे खेतिहर और भूमिहर संभ्रांत दोनों ही कृषि उत्पादन से जुडे़ थे और दोनों ही फसल के हिस्सों के दावेदार थे।
(iii) इससे उनके बीच सहयोग, प्रतियोगिता और संघर्ष के रिश्ते बने। खेती से जुडे़ इन तमाम रिश्तों के ताने-बाने से गाँव का समाज बनता था।
(iv) कई फसलें बिक्री के लिए उगाई जाती थीं, इसलिए व्यापार, मुद्रा और बाजार भी गाँवों में घुस आए और इससे खेती वाले इलाके शहर से जुड़ गए।
(v) इस समय मुग़लों का शासन था, कर समय पर मिल जाए इसलिए उन्होंने कृषि को बढ़ावा दिया |
(vi) राज्य के नुमाइंदे - राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व वसूली करने वाले, हिसाब रखने वाले - ग्रामीण समाज पर काबू रखने की कोशिश करते थे।
सत्रहवीं शताब्दी में भारतीय किसान और कृषि उत्पादन :
खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी जिसमें किसान रहते थे। किसान साल भर अलग-अलग मौसम में वो तमाम काम करते थे जिससे फसल की पैदावार होती थी - जैसे कि जमीन की जुताई, बीज बोना और फसल पकने पर उसकी कटाई। इसके अलावा वे उन वस्तुओं के उत्पादन में भी शरीक होते थे जो कृषि-आधारित थीं जैसे कि शक्कर, तेल इत्यादि।
कृषि क्रियाकलापों के जानकारी के स्रोत :
(i) ऐतिहासिक ग्रन्थ और दस्तावेज जैसे आइना-ए-अकबरी पुस्तक के लेखक अबुल फजल है |
(ii) सत्राहवीं व अठारहवीं सदियों के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं।
(iii) ईस्ट इंडिया कंपनी के बहुत सारे दस्तावेज भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों का उपयोगी
खाका पेश करते हैं।
आइना-ए-अकबरी में दिया वर्णन :
अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल ने लिखा था। खेतों की नियमित जुताई की तसल्ली करने के लिए, राज्य के नुमाइंदों द्वारा करों की उगाहीे के लिए और राज्य व ग्रामीण सत्तापोशो यानी कि जमींदारों के बीच के रिश्तों के नियमन के लिए जो इंतजाम राज्य ने किए थे, उसका लेखा-जोखा इस ग्रन्थ में बड़ी सावधानी से पेश किया गया है।
मुग़लकालीन भारतीय किसान :
मुग़लकाल के भारतीय-फ़ारसी स्रोत किसानों के लिए आमतौर पर रैयत या मुजरियान शब्द का इस्तेमाल करते थे | साथ ही, साथ किसान या असामी जैसे शब्द भी मिलते हैं |
सत्रहवीं सदी के स्रोत के अनुसार किसान दो प्रकार के थे -
(i) खुद-काश्त : वे किसान जो गाँव में रहते थे और जिनकी खुद की जमीन थी |
(ii) पाहि-काश्त : वे खेतिहर किसान जो दुसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे |
पाहि-काश्त लोग अपनी मर्जी से भी बनते थे तब जबकि -
(i) अगर करों की शर्ते किसी दुसरे गाँव में बेहतर मिले |
(ii) अकाल या भूखमरी के बाद आर्थिक तंगी से परेशान होकर|
किसानों की जमीन :
उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास अधिक से अधिक एक जोड़ी बैल और दो हल से अधिक कुछ नहीं होता था | किसी-किसी के पास इससे भी कम | गुजरात में किसानों के पास 6 एकड़ के जमीन जिसके पास होती थी उसे अमीर माना जाता था | बंगाल में एक औसत किसान की जमीं की उपरी सीमा 5 एकड़ थी | 10 एकड़ जमीन वाली असामी को अमीर समझा जाता था | खेती व्यक्तिगत मिल्कियत के सिद्धांत पर आधारित थी | किसानों की जमीन उसी तरह खरीदी बेचीं जाती थी जैसे दुसरे संपति बेचीं या खरीदी जाती थी |
मुग़लकाल में कृषि, सिंचाई और तकनीक का विकास :
(i) जमीन की बहुतायत, मजदूरों की मौजूदगी और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ |
(ii) चूँकि खेती का प्राथमिक उदेश्य लोगों का पेट भरना था इसलिए रोजमर्रा के खाने की जरूरतें जैसे चावल, गेंहूँ, ज्वार इत्यादि फसलें सबसे ज्यादा उगाई जाती थी |
(iii) जिन इलाकों में प्रतिवर्ष 40 इंच या उससे ज्यादा बारिश होती थी, वहाँ चावल की खेती होती थी |
(iv) कम और कमतर बारिश वाले इलाकों में क्रमश: गेंहूँ व ज्वार-बाजरे की खेती ज्यादा प्रचलित थी |
(v) कुछ फसलों में अतिरिक्त पानी की जरुरत थी, इनके लिए सिंचाई के कृत्रिम उपाय बनाने पड़े |
(vi) सिंचाई कार्यों के लिए राज्य की मदद भी मिलती थी | उत्तर भारत में राज्य ने कई नयी नहरें व नाले खुदवाएं और कई पुरानी नहरों की मरम्मत करवाई |
(vii) कृषि कार्य अकसर पशुबल पर आधारित था |
तम्बाकू का प्रसार :
अकबर और उसके अभिजातों ने 1604 में पहली बार तम्बाकू देखा | यह पौधा सबसे पहले दक्कन पहुँचा और वहाँ से सत्रहवी सदी के शुरुआत में इसे भारत लाया गया | आइन उत्तर भारत की फसलों की सूची में तम्बाकू का जिक्र नहीं करती है | इसी समय तम्बाकू का धुम्रपान करने में लत ने जोर पकड़ा | जहाँगीर ने इस बुरी आदत के फ़ैलाने से चिंतित होकर इस पर पाबन्दी लगा दी | यह पाबन्दी पूरी तरह से बेअसर साबित हुई |
फसल और कृषि :
मौसम के दो मुख्य चक्रों के दौरान खेती की जाती थी |
(i) एक खरीफ (पतझड़ में)
(ii) दूसरी रबी (वसंत में)
आइन के अनुसार भारत में उगाई जाने वाली फसलें :
आइन हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर,. मुग़ल प्रान्त आगरा में 39 किस्म की फसलें उगाई जाती थी जबकि दिल्ली प्रान्त में 43 फसलों की पैदावार होती थी | बंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थी | मुग़लकाल में दैनिक आहार की खेती पर ज्यादा जोर दिया जाता था |
मुग़ल काल में व्यावसायिक खेती :
मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फसलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज्यादा कर मिलता था | कपास और गन्ने जैसी फसलें बेहतरीन और जींस-ए-कामिल थीं | बंगाल चीनी के लिए मशहूर था |
ग्रामीण समुदाय और किसान :
किसान सामूहिक ग्रामीण समुदाय का हिस्सा था | किसान का जमीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी |
इस समुदाय के तीन घटक थे -
(i) खेतिहर किसान,
(ii) पंचायत और
(iii) गाँव का मुखिया
जाति एवं ग्रामीण व्यवस्था :
(i) खेतों की जुताई या मजदूरी के कामों में गाँव में नीच समझे जानी वाली जातियों के लोग करते थे | गाँव का बड़ा हिस्सा ऐसे ही लोगों का था इनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था के पाबंदियों में बंधे थे |
(ii) मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे 'नीच' कामों से जुड़े समूह गाँव की हदों के बाहर ही रह सकते थे | बिहार में मल्लाह्जादाओं की तुलना दासों से की जा सकती थी |
(iii) जाट भी किसान थे लेकिन जाति व्यवस्था में इनकी जगह राजपूतों से नीची थी | वृन्दावन के गौरव समुदाय राजपूत होते हुए भी जुताई के काम में लगे थे |
(iv) पशुपालन और बागवानी में मुनाफे कमाने की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक दर्जे में ऊँचे थे |
सत्रहवी शताब्दी में पंचायती व्यवस्था :
पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकदम या मंडल कहते थे | पंचायत का फैसला गाँव में सबकों मानना पड़ता था | मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी जमींदार से लेनी पड़ती थी | मुखिया अपने ओहदे पर तब तक बना रह सकता था जब तक गाँव के बुजुर्गों का उस पर भरोसा होता था | ऐसा नहीं होने पर गाँव के बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे | गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था | पंचायत का खर्चा उस आम खजाने से चलता था जिसमें गाँव का हर व्यक्ति अपना योगदान देता था | इस खजाने से उन कर अधिकारीयों की खातिरदारी भी की जाती थी जो समय-समय पर गाँव का दौरा करते थे | इस कोष का इस्तेमाल बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदाओं से निपटने के लिए भी होता था |