अध्याय - समीक्षा:
- झूम खेती घुमंतू खेती को कहा जाता है।घुमंतू किसान मुख्य रूप से पूर्वात्तर और मध्य भारत की पर्वतीय व जंगली पट्टियों में ही रहते थे।
- आदिवासी मुखायात: खाना पकाने के लिए वे साल और महुआ के बीजों का तेल इस्तेमाल करते थे।
- इलाज के लिए वे बहुत सारी जंगली जड़ी-बूटियों का इस्तेमाल करते थे और जंगलों से इकट्ठा हुई चीजों को स्थानीय बाजरों में बेच देते थे।
- मध्य भारत के बैगा - औरों के लिए काम करने से कतराते थे। बैगा खुद को जंगल की संतान मानते थे जो केवल जंगल की उपज पर ही जिदा रह सकती है। मजदूरी करना बैगाओं के लिए अपमान की बात थी।
- पंजाब के पहाडो मैं रहने वाले वन गुज्जार आरै आंध्रप्रदेश के लबाडिया आदि समुदाय गाय-भैंस के झुंड पालते थे।
- कुल्लू के गद्दी समुदाय के लोग गड़रिये थे और कश्मीर के बकरवाल बकरियाँ पालते थे।
- आदिवासियों के मुखियाओं का महत्वपूर्ण स्थान होता था। उनवेफ पास औरों से ज्यादा आर्थिक ताकत होती थी और वे अपने इलाके पर नियंत्रण रखते थे। कई जगह उनकी अपनी पुलिस होती थी और वे जमीन एवं वन प्रबंधन के स्थानीय नियम खुद बनाते थे।
- अंग्रेजो ने सारे जंगलों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था और जंगलों को राज्य की संपत्ति घोषित कर दिया था। कुछ जंगलों को आरक्षित वन घोषित कर दिया गया।
- ये ऐसे जंगल थे जहाँ अंग्रेजो की जरूरतों के लिए इमारती लकड़ी पैदा होती थी। इन जंगलों में लोगों को स्वतंत्र रूप से घूमने, झूम खेती करने, पफल इकट्ठा करने या पशुओं का शिकार करने की इजाजत नहीं थी।
- 1906 में सोंग्रम संगमा द्वारा असम में और 1930 के दशक में मध्य प्रांत में हुआ वन सत्याग्रह इसी तरह के विद्रोह थे।
- अठारहवीं सदी में भारतीय रेशम की यूरोपीय बाजरों में भारी माँग थी। भारतीय रेशम की अच्छी गुणवत्ता सबको आकर्षित करती थी और भारत का निर्यात तेजी से
बढ़ रहा था। - जैसे-जैसे बाजर फैला ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसर इस माँग को पूरा करने क्व लिए रेशम उत्पादन पर शोर देने लगे।
- वर्तमान झारखण्ड में स्थित हजारीबाग के आस-पास रहने वाले संथाल रेशम के कीड़े पालते थे। रेशम के व्यापारी अपने ऐजेंटों को भेजकर आदिवासियों को कर्जे देते थे और उनके कृमिकोषों को इकट्ठा कर लेते थे।एक हजार कृमिकोषों के लिए 3-4 रुपए मिलते थे।
- उन्नीसवीं सदी के आखिर से ही चाय बागान फैलने लगे थे। खनन उद्योग भी एक महत्वपूर्ण उद्योग बन गया था।
- असम के चाय बागानों और झारखण्ड की कोयला खादानों में काम करने के लिए आदिवासियों को बड़ी संख्या में भर्ती किया गया।
- 1831-32 में कोल आदिवासियों ने और 1855 में संथालों ने बगावत कर दी थी।
- मध्य भारत में बस्तर विद्रोह 1910 में हुआ और 1940 में महाराष्ट्र में वर्ली विद्रोह हुआ।
- बिरसा का जन्म 1870 के दशक के मध्य में हुआ। उनके पिता गरीब थे। बिरसा का बचपन भेड़-बकरियाँ चराते, बाँसुरी बजाते और स्थानीय अखाड़ों में नाचते-गाते बीता था। उनकी परवरिश मुख्य रूप से बोहोंडा के आस-पास के जंगलों में हुई।
- बिरसा ने एक जाने-माने वैष्णव धर्म प्रचारक के साथ भी कुछ समय बिताया। उन्होंने जनेउ धारण किया और शुद्धता व दया पर जोर देने लगे।
- बिरसा का आंदोलन आदिवासी समाज को सुधारने का आंदोलन था। उन्होंने मुंडाओं से आह्नान किया कि वे शराब पीना छोड़ दें, गाँवों को साफ रखें और डायन व जादू-टोने में विश्वास न करें।
- बिरसा ने मिशनरियों और हिंदू जमींदारों का भी लगातार विरोध किया। वह उन्हें बाहर का मानते थे जो मुंडा जीवन शैली को नष्ट कर रहे थे।
- 1895 में बिरसा ने अपने अनुयायियों से आह्नान किया कि वे अपने गौरवपूर्ण अतीत को पुनर्जीवित करने के लिए संकल्प लें। वह अतीत वेफ एकऐसे स्वर्ण युग - सतयुग - की चर्चा करते थे जब मुंडा लोग अच्छा जीवन जीते थे, तटबंध बनाते थे, वकुदरती झरनों को नियंत्रित करते थे, पेड़ और बाग लगाते थे, पेट पालने वेफ लिए खेती करते थे।
- बिरसा चाहते थे कि लोग एक बार पिफर अपनी शमीन पर खेती करें, एक
जगह टिक कर रहें और अपने खेतों में काम करें। - यह आंदोलन मिशनरियों, महाजनों, हिंदू भूस्वामियों और सरकार को बाहर निकालकर बिरसा के नेतृत्व में मुंडा राज स्थापित करना चाहता था।
- यह आंदोलन इन्हीं ताकतों को मुंडाओं की सारी समस्याओं व कष्टों का स्रोत
मानता था। - अंग्रेजो की भूनीतियाँ उनकी परंपरागत भूमि व्यवस्था को नष्ट कर रही थीं, हिंदू भूस्वामी और महाजन उनकी जमीन छीनते जा रहे थे और मिशनरी उनकी परंपरागत संस्वृफति की आलोचना करते थे।
- जब आंदोलन फैलने लगा तो अंग्रेजो ने सख्त कार्रवाई का फसला लिया। उन्होंने 1895 में बिरसा को गिरफ्ऱतार किया और दंगे-फसाद के आरोप में दो साल की सजा सुनायी।
- 1897 में जेल से लौटने के बाद बिरसा समर्थन जुटाते हुए गाँव-गाँव घूमने लगे।
- सन् 1900 में बिरसा की हैजे से मृत्यु हो गई और आंदोलन ठंडा पड़ गया। यह आंदोलन दो मायनों में महत्वपूर्ण था।
- पहला - इसने औपनिवेशिक सरकार को ऐसे कानून लागू करने के लिए मजबूर किया जिनके जरिए दीकु लोग आदिवासियों की जमीन पर आसानी से कब्शा न कर सके।
- दूसरा, इसने एक बार फिर जता दिया कि अन्याय का विरोध करने और औपनिवेशिक शासन के विरुद्धअपने गुस्से को अभिव्यक्त करने में आदिवासी सक्षम हैं।