आय व रोजगार का परंपरावादी सिद्धांत (1776)
आधुनिक अर्थशास्त्र का जन्मदाता एडम स्मिथ को कहा जाता है | परंपरावादी अर्थशास्त्री है जैसे : माल्थस, जे.बी. से., पीगू, रिकार्डो, जे. एस. मिल. आदि | इन्होने जिन आर्थिक सिद्धांतों का विकास किया है, उन्हें व्यष्टि- अर्थशास्त्र का नाम दिया गया, क्योंकि उनके अध्ययन का आधार मुख्य रूप से व्यक्तिगत आर्थिक इकाइयाँ थी |
मुख्य बातें :
(1) अर्थव्यवस्था सदा पूर्ण रोजगार की स्थिति में रहती है| यदि संसाधनों के पूर्ण रोजगार में अस्थायी रूप से कभी कमी आ जाये तो यह अल्पकालिक होती है क्योंकि मजदूरी – दर में कमी आने से श्रम की मांग बढ़ जाती है जिससे बेरोजगारों को शीघ्र ही रोजगार मिल जाता है और दीर्घकाल में बेरोजगारी स्वतः ही समाप्त हो जाती है |
(2) से का बाजार नियम : फ़्रांसिसी अर्थशास्त्री, जे.बी.से. के द्वारा बाजार नियम पर आधारित है की पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है | अर्थात् उत्पादन की प्रत्येक क्रिया से आय उत्पन्न बिक जाते है फलस्वरूप अति उत्पादन व बरोजगारी की संभावना समाप्त हो जाती है |
(a) कीमतों में लचीलेपन के कारण मांग और पूर्ति की शक्तियों में संतुलन हो जाता है |
(b) मजदूरी- दर में लचीलापन, पूर्ण रोजगार संतुलन स्थापित करता है |
(c) ब्याज –दर में लचीलापन, बचत और निवेश में समानता बनाए रखता है | लचीलेपन से अभिप्राय है स्वतंत्रतापूर्वक घटने- बढ़ने का गुण | ऐसी स्थिति में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए |
समग्र पूर्ति पर परंपरावादी अवधारणा
परंपरावादी विचारधारा के अनुसार, कीमत में उतार –चढ़ाव का समग्र पूर्ति समान्तर एक लम्बावत रेखा होती है | परन्तु से के बाजार नियम और मजदूरी कीमत के लचीलेपन के लागू होने से समग्र पूर्ति हमेशा पूर्ण रोजगार उत्पादन स्तर पर होगी |
समग्र पूर्ति वक्र, पूर्ण रोजगार उत्पादन स्तर पर Y-अक्ष के समान्तर एक लम्बात्मक सीधी रेखा है | यह वक्र कीमत के संदर्भ में पूर्ण बेलो चादर होता है चित्र में वक्र AS समग्र पूर्ति वक्र है और OQ पूर्ण रोजगार उत्पादन स्तर को दर्शाता है | समग्र पूर्ति वक्र AS का Y-अक्ष के समान्तर होना यह प्रकट करता है कि कीमत स्तर में परिवर्तनों का समग्र पूर्ति पर कोई प्रभाव नहीं होता |
आय व रोजगार का केन्सीय सिद्धांत
बींसवी सदी के प्रसिद्ध व सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री जे.एम.केन्स (1936 इंग्लैंड) को माना जाता है | इसके साथ ही अर्थशास्त्र का एक नया –केन्स का अर्थशास्त्र या समष्टि अर्थशास्त्र विकसित हुआ| केन्सीय अर्थशास्त्र मुख्य रूप से अर्थशास्त्र में पूर्ण रोजगार व आय के निर्धारण से संबंधित है |
केन्स ने पूर्ण रोजगार की क्लासिकल (परंपरावादी) धरना का निम्न आधार पर खंडन किया है :
(1) पूँजीवादी समाज में आय व संपति में सदा असमानता होती है जिसमे अमीरों के पास इतना अधिक धन होता है की वे सारा उपभोग नहीं कर सकते तथा गरीबों के पास इतना कम नहीं कर पाते | फलस्वरूप कुल मांग (उपभोग कुल उत्पादन (पूर्ति/ से कम रह जाती है | जिसका परिणाम अत्यधिक उत्पादन और बेरोजगार में निकलता है | पूर्ति अपनी मांग स्वयं उत्पन्न करती है |
(2) केन्स के अनुसार, मांग पूर्ति को उत्पन्न करती है न कि पूर्ति मांग को | प्रत्येक अर्थव्यवस्था में लोग अपनी समस्त आय को खर्च न करके कुछ बचा लेते है | फलस्वरूप मांग पूर्ति से उतनी कम रह जाती है जितनी बचत की जाती है | यही बचत अति उत्पादन व बेरोजगारी का कारण बनती है |
मुख्य बातें :
(1) आय और रोजगार के संतुलन –स्तर पर पूर्ण रोजगार का होना जरुरी नहीं, क्योंकि संतुलन पूर्ण रोजगार से कम या अधिक पर हो सकता है |
(2) मांग पूर्ति को उत्पन्न करती है न की पूर्ति मांग को उत्पन्न करती है |
(3) उत्पादन, आय और रोजगार को स्तर में वस्तुओं और सेवाओं की समग्र मांग पर निर्भर करता है | यदि समग्र मांग बढ़ जाती है तो बढती हुई मांग को पूरा करने के लिए संसाधनों के अध्हिक प्रयोग (रोजगार) से उत्पादन व आय का स्तर भी बढ़ जाएगा |यदि समग्र मांग घटती है तो उत्पादन आय और रोजगार का स्तर भी गिरता है |
समग्र पूर्ति केंसिया विचारधारा के अनुसार
सभी फर्में चालू कीमतों पर वस्तु की कितनी भी मात्रा उत्पादन करनी को तैयार रहती है जब तक पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त नहीं हो जाती है |
समग्र पूर्ति वक्र पूर्ण रोजगार की स्थिति प्राप्त होने से पहले पूर्ण लोचदार होता है इसके दो कारण है :
(1) मजदूरी –कीमत कठोरता
(2) श्रम की स्थिर सीमान्त उत्पादिता