इस्लाम की पाँच सैद्धांतिक बातें जो हर इस्लाम को मानने वाले को करना होता था |
(i) अल्लाह एकमात्र ईश्वर है |
(ii) पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत हैं |
(iii) दिन में पाँच बार नमाज पढ़ी जानी चाहिए |
(iv) खैरात (जकात ) बाँटनी चाहिए |
(v) रमजान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए और हज के लिए मक्का जाना चाहिए।
कबीर को लेकर विवाद :
आज भी विवाद है कि वह जन्म से हिंदू थे अथवा मुसलमान और यह विवाद अनेक संत जीवनियों में उभर कर आते हैं जो सत्राहवीं शताब्दी यानी उनकी मृत्यु के 200 वर्ष बाद से लिखी गईं।
इतिहासकार धार्मिक परंपरा के इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अनेक स्रोतों का उपयोग करते हैं- जैसे
(i) मूर्तिकला,
(ii) स्थापत्य,
(iii) धर्मगुरुओं से जुड़ी कहानियाँ,
(iv) दैवीय स्वरूप को समझने को उत्सुक स्त्री और पुरुषों द्वारा लिखी गई काव्य रचनाएँ आदि।
इस काल की विशेषताएँ :
(i) साहित्य और मूर्तिकला
(ii) विष्णु, शिव और अनेक तरह के देवी देवता अधिकाधिक दृष्टिगत होते हैं |
(iii) इन देवी-देवताओं की आराधना की परिपाटी न केवल चलती रही अपितु और अधिक विस्तृत हुई |
पूजा प्रणाली की प्रक्रियाएँ :
इस कल में कम से कम दो प्रक्रियाएँ प्रचलित थी :
(i) ब्राम्हणीय विचारधारा का प्रचार : इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ |
(ii) स्त्री, शूद्रों व अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं और आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृत किया जाना और उसे एक नया रूप प्रदान करना।
समाजशास्त्री रेडफील्ड द्वारा वर्णित कर्मकांड और पद्धतियाँ :
(i) महान परंपरा : किसान उन कर्मकांडों और पत्तियों का अनुकरण करते थे जिनका समाज के
प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे पुरोहित और राजा द्वारा पालन किया जाता था। इन कर्मकांडों को रेडफील्ड ने "महान" परंपरा की संज्ञा दी।
(ii) लघु परंपरा : कृषक समुदाय अन्य लोकाचारों का भी पालन करते थे जो इस महान परिपाटी से
सर्वथा भिन्न थे। उसने इन्हें "लघु" परंपरा के नाम से अभिहित किया।
तांत्रिक पूजा पद्धति :
अधिकाशंतः देवी की आराधना पद्धति को तांत्रिक नाम से जाना जाता है। तांत्रिक पूजा पद्धति उपमहाद्वीप के कई भागों में प्रचलित थी | इस पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को खासतौर से उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी और दक्षिणी भागों में प्रभावित किया |
विशेषताएँ :
(i) इसके अंतर्गत स्त्री और पुरुष दोनों ही शामिल हो सकते थे।
(ii) इसके अतिरिक्त कर्मकांडीय संदर्भ में वर्ग और वर्ण के भेद की अवहेलना की जाती थी।
वैदिक देव कुल के देवता :
अग्नि, इंद्र और सोम
भक्ति परंपरा से जुड़े दो संप्रदाय :
(i) वैष्णव संप्रदाय
(ii) शैव संप्रदाय
भक्ति परम्परा के दो मुख्य वर्ग :
(i) सगुण (विशेषण सहित) भक्ति : इस प्रकार की भक्ति में भक्त अपने इष्ट देव जैसे- शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की आराधना मूर्त रूप में करता है अर्थात साकार ईश्वर की उपासना की जाती है|
(ii) निर्गुण (विशेषण विहीन) भक्ति : निर्गुण भक्ति परंपरा में अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी।
भक्ति परम्परा की विशेषताएँ :
(i) बहुत सी भक्ति परंपराओं में ब्राह्मण, देवताओं और भक्तजन के बीच महत्वपूर्ण बिचौलिए बने
रहे |
(ii) इन परंपराओं ने स्त्रियों और निम्न वर्णों को भी स्वीकृति व स्थान दिया।
(ii) भक्ति परंपरा की एक और विशेषता इसकी विविधता है।
अलवार और नयनार संत :
प्रारंभिक भक्ति आंदोलन (लगभग छठी शताब्दी) अलवारों (विष्णु भक्ति में तन्मय) और नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व में हुआ। वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते हुए तमिल में अपने ईष्ट की स्तुति में भजन गाते थे।
अपनी यात्राओं के दौरान अलवार और नयनार संतों ने कुछ पावन स्थलों को अपने इष्ट का निवासस्थल घोषित किया। इन्हीं स्थलों पर बाद में विशाल मंदिरों का निर्माण हुआ और वे तीर्थस्थल माने गए। संत-कवियों के भजनों को इन मंदिरों में अनुष्ठानों के समय गाया जाता था और साथ ही इन संतों की प्रतिमा की भी पूजा की जाती थी।
अलवार एवं नयनार संतों की जाति के प्रतिदृष्टिकोण :
(i) अलवार और नयनार संतों ने जाति प्रथा व ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई।
(ii) इन भक्ति संत समुदायों में विभिन्न समुदायों के लोग थे जैसे- ब्राम्हण, शिल्पकार, किसान, और कुछ तो उन जातियों से आये थे जिन्हें समाज में अस्पृश्य माना जाता था |
(iii) अलवार और नयनार संतों की रचनाओं को वेद जितना महत्त्वपूर्ण बताकर इस परंपरा को सम्मानित किया गया। उदाहरणस्वरूप, अलवार संतों के एक मुख्य काव्य संकलन नलयिरादिव्यप्रबंधम् का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस तरह इस ग्रंथ का महत्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया |
स्त्री भक्त अंडाल : इस परंपरा की सबसे बड़ी विशिष्टता इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। उदाहरणतः अंडाल नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत व्यापक स्तर पर गाए जाते थे (और आज भी गाए जाते हैं)। अंडाल स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेमभावना को छंदों में व्यक्त करती थीं।
शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार : करइक्काल अम्मइयार एक शिवभक्त थी जिसने उद्देश्य प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। नयनार परंपरा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया।
मणिक्वचक्कार : मणिक्वचक्कार की बारहवीं शताब्दी के संत थे ये शिव के अनुयायी थे और तमिल में भक्तिगान की रचना करते थे।
अलवार और नयनार भक्ति परम्परा में स्त्री भक्तों की विशेषताएँ/महत्व :
(i) इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया |
(ii) वह किसी वैकल्पिक व्यवस्था अथवा भिक्षुणी समुदाय की सदस्या नहीं बनीं।
(iii) इन स्त्रिायों की जीवन पद्धति और इनकी रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।
तमिल भक्ति रचनाओं कि मुख्य विषयवस्तु : तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध और जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है। विरोध का स्वर नयनार संतों की रचनाओं में विशेष रूप से उभर कर आता है।
शक्तिशाली चोल राजवंश : शक्तिशाली चोल (नवीं से तेरहवीं शताब्दी) सम्राटों ने ब्राह्मणीय और भक्ति परंपरा को समर्थन दिया तथा विष्णु और शिव के मंदिरों के निर्माण के लिए भूमि-अनुदान दिए।
चोल राजवंश द्वारा किये गए कार्य :
(i) चिदम्बरम, तंजावुर और गंगैकोडाचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से ही निर्मित हुए।
(ii) इसी काल में कांस्य में ढाली गई शिव की प्रतिमाओं का भी निर्माण हुआ। स्पष्ट है कि नयनार संतों का दर्शन शिल्पकारों के लिए प्रेरणा बना।
(iii) नयनार और अलवार संत वेल्लाल कृषकों द्वारा सम्मानित होते थे इसलिए आश्चर्य नहीं कि शासकों ने भी उनका समर्थन पाने का प्रयास किया। उदाहरणतः चोल सम्राटों ने दैवीय समर्थन पाने का दावा किया और अपनी सत्ता के प्रदर्शन के लिए सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें पत्थर और धातु से बनी मूर्तियाँ सुसज्जित थीं।
(iv) इस तरह इन लोकप्रिय संत-कवियों की परिकल्पना को, जो जन-भाषाओं में गीत रचते व गाते थे, मूर्त रूप प्रदान किया गया। इन सम्राटों ने तमिल भाषा के शैव भजनों का गायन इन मंदिरों में प्रचलित किया। उन्होंने ऐसे भजनों का संकलन एक ग्रंथ (तवरम) के रूप में करने का भी जिम्मा उठाया।
(v) 945 ईसवी के एक अभिलेख से पता चलता है कि चोल सम्राट परांतक प्रथम ने संत कवि अप्पार संबंदर और सुन्दरार की धातु प्रतिमाएँ एक शिव मंदिर में स्थापित करवाईं। इन मूर्तियों को उत्सव में एक जुलूस में निकाला जाता था।
लिंगायत समुदाय :
बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना (1106-68) नामक एक ब्राह्मण ने किया। बासवन्ना प्रारंभ में जैन मत को मानने वाले थे और चालुक्य राजा के दरबार में मंत्राी थे। इनके अनुयायी वीरशैव (शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए।
लिंगायत समुदाय कि उपासना पद्धति :
वे शिव की आराधना लिंग के रूप में करते हैं। इस समुदाय के पुरुष वाम स्वंफध पर चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। जिन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है उनमें जंगम अर्थात यायावर भिक्षु शामिल हैं।
लिंगायत समुदाय का धार्मिक विश्वास और अवधारणा:
(i) लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्योपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएँगे तथा इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे।
(ii) धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का वे पालन नहीं करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं।
(iii) लिंगायतों ने जाति की अवधारणा और कुछ समुदायों के "दूषित" होने की ब्राह्मणीय अवधारणा का विरोध किया।
(iv) पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी उन्होंने प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया।