पौराणिक हिन्दू धर्म : इस उपमहाद्वीप में पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय बहुत ही प्राचीन है | बौद्ध धर्म से पहले यहाँ यही मत प्रचलित था | इसमें देवताओं को मुक्तिदाता के रूप में देखा जाता था | इस धर्म में भक्ति का बहुत है जिसमें एक ही देवता को महत्व दिया जाता था | इस प्रकार की आराधना में उपासना और ईश्वर के बीच का रिश्ता प्रेम और समर्पण का रिश्ता माना जाता था, और इसे ही भक्ति कहा जाता था |
इसमें दो मतों के भक्त होते है :
(i) वैष्णव मत: वह हिन्दू परंपरा जिसमें भगवान विष्णु को महत्वपूर्ण अराध्य देव माना जाता था और उन्हें ही मुक्तिदाता के रूप में पूजा जाता था |
(ii) शैशव मत या शैव मत: इस हिन्दू परंपरा में भगवान शिव को प्रमुख अराध्य देव माना जाता था, इसमें यह संकल्पना थी कि शिव परमेश्वर है |
वैष्णववाद : वैष्णववाद में कई अवतारों के इर्द-गिर्द पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। इस परंपरा के अंदर दस अवतारों की कल्पना है। यह माना जाता था कि पापियों के बढ़ते प्रभाव के चलते जब दुनिया में अव्यवस्था और नाश की स्थिति आ जाती थी तब विश्व की रक्षा के लिए भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेते थे। संभवतः अलग-अलग अवतार देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में लोकप्रिय थे। इन सब स्थानीय देवताओं को विष्णु का रूप मान लेना एकीकृत धार्मिक परम्परा के निर्माण का एक महत्वपूर्ण तरीका था।
पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय / पूजा पद्धतियाँ :
(i) भारतीय उपमहाद्वीप में पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय वैष्णववाद के आरम्भ हुई | वैष्णववाद में कई अवतारों के इर्द-गिर्द पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। इस परंपरा के अंदर दस अवतारों की कल्पना है।
(ii) कई अवतारों को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया है। दूसरे देवताओं की भी मूर्तियाँ बनीं। शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में बनाया जाता था। लेकिन उन्हें कई बार मनुष्य के रूप में भी दिखाया गया है।
(iii) ये सारे चित्रण देवताओं से जुड़ी हुई मिश्रित अवधरणाओं पर आधारित थे। उनकी खूबियों और प्रतीकों
को उनके शिरोवस्त्र, आभूषण, आयुधें ;हथियार और हाथ में धरण किए गए अन्य शुभ अस्त्र और बैठने की शैली से इंगित किया जाता था।
(iv) पुराणों की लोकप्रियता ने भी हिन्दू धर्म के विकास में काफी सहायता की | इनमें बहुत से किस्से ऐसे हैं जो
सैकड़ों वर्ष पहले रचने के बाद सुने-सुनाए जाते रहे थे। इनमें देवी-देवताओं की भी कहानियाँ हैं।
पुराणों की लोकप्रियता के कारण : पुराणों की रचना हिन्दू विद्वानों एवं ऋषियों द्वारा की गई है | जिसमें देवी-देवताओं की कहानियों के साथ-साथ समान्य जन से जुडी हुई ज्ञान पर आधारित है |
(i) इनके प्रचलित होने का प्रमुख कारण यह है कि यह संस्कृत के श्लोकों में लिखी गई है और इनकी रचना के बाद लोगों के बीच अक्सर सुने'-सुनाए जाते रहे थे |
(ii) इन्हें ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था जिसे कोई भी सुन सकता था। महिलाएँ और शूद्र जिन्हें वैदिक साहित्य पढ़ने-सुनने की अनुमति नहीं थी, पुराणों को सुन सकते थे।
(iii) पुराणों की ज्यादातार कहानियाँ लोगों के आपसी मेल-मिलाप से विकसित हुईं। पुजारी, व्यापारी और सामान्य स्त्री-पुरुष एक से दूसरी जगह आते-जाते हुए अपने विश्वासों और अवधरणाओं का आदान-प्रदान
करते थे।
भक्ति मार्ग की प्रमुख विशेषताएँ : किसी देवी या देवता के प्रति लगाव और समर्पण को भक्ति कहा जाता था | इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ थी |
(i) भक्ति का मार्ग अपनाने वाले लोग आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे | वे ईश्वर के प्रति सच्ची लगन और किसी एक आराध्य पर बल देते थे |
(ii) भक्ति मार्ग अपनाने वालों का यह भी मानना था कि यदि अपने आराध्य देवी या देवता की सच्चे मन से पूजा की जाए तो वह उसी रूप में दर्शन देते है, जिस रूप में भक्त उन्हें देखना चाहता है |
(iii) देवी देवताओं का विशेष स्थान दिया जाता था | इसलिए उनकी मूर्तियाँ मंदिर में रखी जाने लगी |
(iv) भक्ति परम्परा में लोग अपने अराध्य देवी या देवताओं की मूर्तियों का प्रचलन हुआ और उनकी पूजा की जाने लगी | इससे चित्रकला, शिल्पकला और स्थापत्यकला के माध्यम से अभिव्यक्ति की प्रेरणा भी दी | इनसे इन कलाओं के विकास को मदद मिला |
(v) भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला था - चाहे वह धनी हो या निर्धन हो, स्त्री या पुरुष हो, ऊँच जाति का हो यां निम्न जाति का |
आरंभिक मंदिरों का निर्माण एवं उनकी विशेषताएँ :
जिस समय साँची जैसी जगहों में स्तूप अपने विकसित रूप में आ गए थे उसी समय देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए सबसे पहले मंदिर भी बनाए गए। शुरू के मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में थे जिन्हें गर्भगृह कहा जाता था। इनमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक मूर्ति की पूजा करने के लिए भीतर प्रविष्ट हो सकता था। धीरे-धीरे गर्भगृह के ऊपर एक ऊँचा ढाँचा बनाया जाने लगा जिसे शिखर कहा जाता था | मंदिर की दीवारों पर अक्सर भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे। बाद के युगों में मंदिरों के स्थापत्य का काफी विकास हुआ।
आरंभिक मंदिरों की निम्नलिखित विशेषताएँ थी |
(i) शुरू के मंदिर एक चौकोर कमरे के रूप में थे जिन्हें गर्भगृह कहा जाता था। इनमें एक दरवाजा होता था जिससे उपासक मूर्ति की पूजा करने के लिए भीतर प्रविष्ट हो सकता था।
(ii) गर्भगृह के ऊपर एक ढाँचा होता था जिसे शिखर कहते थे |
(iii) प्राचीन मंदिर की दीवारों पर अक्सर भित्ति चित्र उत्कीर्ण किए जाते थे।
(iv) मंदिरों के साथ विशाल सभास्थल, ऊँची दीवारें और तोरण भी होती थी | इसके साथ जलआपूर्ति की व्यवस्था भी की जाती थी |
(v) शुरू-शुरू के मंदिरों की एक खास बात यह थी कि इनमें से कुछ पहाडि़यों को काट कर खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में बनाए गए थे।
सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफा : सबसे प्राचीन कृत्रिम गुफाएँ ईसा पूर्व तीसरी सदी में असोक के आदेश से आजीविक संप्रदाय के संतों के लिए बनाई गई थीं।
कैलाश मंदिर एलोरा : सबसे प्राचीन और उत्कृष्ट वस्तुकला और मूर्तिकला का विकसित नमूना हमें आठवीं सदी के कैलाशनाथ मंदिर जो भगवान शिव का एक नाम है इस मंदिर में नजर आता है जिसमें पूरी पहाड़ी काटकर उसे मंदिर का रूप दे दिया गया था।