वन्य एवं वन्य जीवन
वन जैव विविधता के तप्त स्थल (Hot spot) है :
वास्तव में केवल वन ही एक ऐसा स्थल है जिसे जैव विविधता का तप्त स्थल कहा जा सकता है क्योंकि वनों में जैव विविधता के अनेकों उदाहरण संरक्षित है | ये उस स्थल के सभी प्राणीजात और वनस्पति जात को न केवल प्राकृतिक संरक्षण प्रदान करता है अपितु वन उनके वृद्धि और विकास के लिए पोषण प्रदान करता है |
जैव विविधता : जैव विविधता किसी एक क्षेत्र में पाई जाने वाली विविध स्पीशीज की संख्या है जैसे पुष्पी पादप, पक्षी, कीट, सरीसृप, जीवाणु और कवक आदि।
जैव विविधता के नष्ट होने के परिणाम :
प्रयोगों और वस्तुस्थिति के अध्ययन से हमें पता चलता है कि विविधता के नष्ट होने से पारिस्थितिक स्थायित्व भी नष्ट हो सकता है। क्योंकि किसी पारिस्थितिक तंत्र में उपस्थिति जैव और अजैव घटक उस पारिस्थितिक तंत्र को संतुलन प्रदान करते हैं | जैसे ही ये जैव विविधतता नष्ट होती है पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन उत्पन होता है और यह नष्ट हो जाता है |
तप्त स्थल : ऐसा क्षेत्र जहा अनेक प्रकार की संपदा पाई जाती है।
दावेदार : ऐसे लोग जिनका जीवन, कार्य किसी चीज पर निर्भर हो, वे उसके दावेदार होते हैं।
वनों के दावेदार :
(i) स्थानीय लोग : वन के अंदर एवं इसके निकट रहने वाले लोग अपनी अनेक आवश्यकताओं के लिए वन पर निर्भर रहते हैं।
(ii) सरकार और वन विभाग : सरकार और वन विभाग जिनके पास वनों का स्वामित्व है तथा वे वनों से प्राप्त संसाधनों का नियंत्रण करते हैं।
(iii) वन उत्पादों पर निर्भर व्यवसायी : ऐसे छोटे व्यवसायी जो तेंदु पत्ती का उपयोग बीड़ी बनाने से लेकर कागज मिल तक विभिन्न वन उत्पादों का उपयोग करते हैं, परंतु वे वनों के किसी भी एक क्षेत्र पर निर्भर नहीं करते।
(iv) वन्य जीव और पर्यावरण प्रेमी : वन जीवन एवं प्रकृति प्रेमी जो प्रकृति का संरक्षण इसकी आद्य अवस्था में करना चाहते हैं।
मानव गतिविधियाँ जो वनों को प्रभावित करती हैं:
1. स्थानीय लोग ईधन के लिए जलावन की काफी मात्रा में उपयोग करते है।
2. झोपड़ी बनाने के लिए, भोजन एकत्र करने के लिए एवं भण्डारण के लिए लकड़ी का प्रयोग करते है। ।
3. खेती के औजार एवं अन्य उपयोगी साधन मानव वन से प्राप्त करते हैं ।
4. औषधि और पशुओं का चारा वन से प्राप्त करते हैं ।
अम्लीय वर्षा का वनों एवं कृषि पर प्रभाव :
जब वर्षा होती हैं तो सल्फर तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड बिजली की चमक केे कारण पानी में घुल जाते हैं जो तेजाब के रूप में वर्षा के साथ गिरते हैं इसे अम्लीय वर्षा कहते है। ये कृषि उत्पादकता तथा वन को प्रभावित करते हैं तथा जब ये अम्ल हरे पत्तों पर पड़ते हैं तो पत्ते के साथ साथ पौधा भी सूख जाता हैं ।
संसाधनों के दोहन :
जब हम संसाधनों का अंधाधुन उपयोग करते है तो बडी तीव्रता से प्रकृति से इनका ह्रास होने लगता है । इसे ही संसाधनों का दोहन कहते है |
संसाधनों के दोहन से होने वाली हानियाँ :
(i) इससे हम पर्यावरण को क्षति पहुँचाते है ।
(ii) जब हम खुदाई से प्राप्त धातु कर निष्कर्षण करते है तो साथ ही साथ अपशिष्ट भी प्राप्त होता है जिनका निपटारा नहीं करने पर पर्यावरण को प्रदूषित करता है ।
(iii) ये संसाधन हमारे ही नहीं अपितु अगली कई पिढियों के भी है, हम आने वाली कई पीढ़ियों को उनके हक़ से वंचित करते है ।
चिपकों आन्दोलन (Chipako Movement):
यह आंदोलन गढ़वाल के 'रेनी' नामक गाँव में 1970 के प्रारम्भिक दशक में हुआ था । लकड़ी के ढेकेदारों ने गाँव के समीप के वृक्षों को काट रहे थे । उस गाँव में उस वक्त पुरूष नहीं थे । इस बात से निडर महिलाँए फौरन वहाँ पहुँच गई और पेड़ो कों अपनी बाहों पकड़कर चिपक गई । अंततः ठेकेदार को विचलित होकर काम रोकना पड़ा । यह आंदोलन तीव्रता से बहुत से समुदायों में फ़ैल गया और सरकार को वन संसाधनों के उपयोग के लिए प्राथमिकता निश्चित करने पर पुनः विचार करने पर मजबूर कर दिया। यह आंदोलन चिपको आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
अमृता देवी विश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार :
अमृता देवी विश्नोई राष्ट्रीय पुरस्कार भारत सरकार द्वारा जैव सरंक्षण के लिए दिया जाता हैं । यह पुरस्कार अमृता देवी विश्नोई की याद में दिया जाता हैं जिन्होंने 1731 में राजस्थान के जोधपुर के पास खेजराली गाँव में खेजरी वृक्षों को बचाने हेतु 363 लोगों के साथ अपने आप को बलिदान कर दिया ।
वनों पर निर्भर उद्योग :
बीडी उद्योग, टिम्बर (इमारती लकड़ी), कागज, लाख तथा खेल के समान आदि |
वनों के संरक्षण में स्थानीय लोगों की भागीदारी :
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के अराबाड़ी वन क्षेत्र में एक योजना प्रारंभ की। यहाँ वन विभाग के एक दूरदर्शी अधिकारी ए.के बनर्जी ने ग्रामीणों को अपनी योजना में शामिल किया तथा उनके सहयोग से बुरी तरह से क्षतिग्रस्त साल के वन की 1272 हेक्टेयर क्षेत्र का संरक्षण किया। इसके बदले में निवासियों को क्षेत्र की देखभाल की जिम्मेदारी के लिए रोजगार मिला साथ ही उन्हें वहाँ से उपज की 25 प्रतिशत के उपयोग का अधिकार भी मिला और बहुत कम मूल्य पर ईंधन के लिए लकड़ी और पशुओं को चराने की अनुमति भी दी गई। स्थानीय समुदाय की सहमति एवं सक्रिय भागीदारी से 1983 तक अराबाड़ी का सालवन समृद्ध हो गया तथा पहले बेकार कहे जाने वाले वन का मूल्य 12.5 करोड़ आँका गया।